क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान
How could we forget the legend entertainers?
हालाँकि बंगाल को भारतीय फुटबाल का मक्का कहा जाता था लेकिन दिल्ली का नाम इसलिए सुर्ख़ियों में रहता था क्योंकि डीसीएम और डूरंड कप जैसे बड़े आयोजन दिल्ली के अंबेडकर स्टेडियम में होते थे।
इन दोनों फुटबाल टूर्नामेंट को देखने भारी भीड़ उमड़ पड़ती थी। लगभग 15 हज़ार की क्षमता वाला अंबेडकर स्टेडियम खचा खच भरा होता था।
इतना ही नहीं बगल में सटे फ़िरोज़ शाह कोटला मैदान की दीवार पर चढ़ कर सैकड़ों क्रिकेट प्रेमी मोहन बागान, ईस्ट बंगाल, मोहम्मडन स्पोर्टिंग, लीडर्स क्लब, गोरखा ब्रिगेड, आरएसी बीकानेर, ओर के मिल्स, डेम्पो, मफतलाल और स्थानीय क्लबों, सिटी, नेशनल, यंग मैन, शिमला यंग्ज़ आदि के मैचों का लुत्फ़ उठाते थे।
बेशक, तब दिल्ली और देश की फुटबाल का स्तर बहुत उँचा था। लेकिन डेढ़ घंटे की फुटबाल के अलावा ऐसा बहुत कुछ होता था जिसे देखने के लिए फुटबाल प्रेमी बंगाल, पंजाब, यूपी, हैदराबाद, गोवा और महाराष्ट्र से भी आते थे।
यह सही है कि 1950 से अगले तीस सालों तक भारतीय फुटबाल का स्वर्णिम दौर चला, जिसमें भारत को दो एशियाड स्वर्ण और चार ओलम्पिक भागीदारी के मौके नसीब हुए।
इस शानदार प्रदर्शन का ही नतीजा था कि देशभर के स्टेडियम खचाखच भरे होते थे। अच्छी और स्तरीय फुटबाल के अलावा हर स्टेडियम में मैदान के बाहर की गतिविधियाँ भी प्राय आकर्षण का केंद्र होती थीं।
अंबेडकर स्टेडियम का बड़ा आकर्षण बादशाह, बनारसी और रमजानी रहे। ये सभी फुटबाल से बहुत करीब से जुड़े थे। बादशाह कभी पुरानी दिल्ली के दंगलों में भाग लिया करते थे। उम्र बढ़ी तो फुटबाल देखने का जुनून चढ़ गया शहंशाए हिंद जलालुद्दीन अकबर जैसा लिबास धारण कर, हुक्का कंधे पर लटकाए अंबेडकर स्टेडियम की राह पकड़ ली।
यूँ तो वह लगभग सभी बड़े मैचों में आकर्षण का केंद्र रहते लेकिन मोहम्मडन स्पोर्टिंग का कोई भी मैच उन्होने शायद ही कभी छोड़ा हो। मैच से पहले अपने बादशाही लिबास में मैदान के चक्कर लगाते हुए खूब तालियाँ लूटते थे। मध्यांतर के चलते उनके जलवे देखते ही बनते थे।
इंदर सिंह, मगन सिंह, हबीब, प्रसून बनर्जी, हरजिंदर, परमिंदर, श्याम थापा, रंजीत थापा, भूपेंद्र रावत और उनसे पहले एवम् बाद के तमाम खिलाड़ी बादशाह की अदाओं और बनारसी की टाइमिंग के दीवाने थे।
बनारसी दास की घड़ी और आवाज़ पर बड़े मैच शुरू और ख़त्म होते थे। मध्यांतर की सीटी भी उनके पुकारने पर बजती थी। हर वक्त यार दोस्तों की टोली से घिरे रहने वाले बनारसी लाल ने पहले पहल लीडर्स फुटबाल क्लब का ‘फ़ैन क्लब’ गठित किया।
जब लीडर्स के अधिकांश खिलाड़ी जेसीटी फगवाडा में चले गए तो बनारसी ने जेसीटी सहित तमाम क्लबों के समर्थक बने रहे। चूँकि उनकी आवाज़ पर रेफ़री की सीटी बजती थी, इसलिए यह कहा जाने लगा कि रेफ़रियों ने घड़ी बाँधना ही बंद कर दिया था।
रमजानी भारतीय रेल में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे और मशक से पानी पिलाने का काम करते थे। दिल्ली फुटबाल लीग में खिलाड़ियों की मुफ़्त सेवा करते थे।
जिस प्रकार बादशाह और बनारसी ने फुटबाल के साथ कभी धर्म को आड़े नहीं आने दिया, रमजानी ने भी खुले दिल और पवित्रता के साथ हिंदू-मुसलिम और हर धर्म के खिलाड़ियों को एक ग्लास या चुल्लू से पानी पिलाया।
भले ही आज बादशाह, बनारसी और रमजानी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके जुनून को हर कोई याद करता है और बार बार सलाम भी करता है।
डीसीएम और डूरंड कप की बस यादें रह गई हैं। दिल्ली फुटबल्ल लीग का रोमांच भी समाप्त हो चुका है। भारतीय फुटबाल में भी अब वह पहले वाली बात नहीं रही।
राजधानी की फुटबाल के सबसे अनुभवी अधिकारियों में शामिल नरेंद्र कुमार भाटिया, हेम चन्द, मगन सिंह पटवाल, पूर्व खिलाड़ी मंजूर अहमद, रंजीत थापा, सुरेंद्र कुमार, सतीश रावत, राकेश पुरी, प्यारे लाल, अज़ीज़ कुरैशी, रेफरी जे सिंह आदि मानते हैं कि बादशाह, बनारसी और रमजानी की तिकड़ी का अपना ही जलवा और आकर्षण था।
अब ना जुनूनी दर्शक रहे और फुटबाल का जुनून तो कबका समाप्त हो चुका है। लेकिन, बादशाह, बनारसी और रमजानी जैसे किरदार फुटबाल के रहने तक जिंदा रहेंगे।