क्लीन बोल्ड/राजेंद्र सजवान
रोहतक में हुए नरसंहार को अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं। छह बेकुसुरों की हत्या के बाद भारतीय कुश्ती सब कुछ भूल कर फिर से नई ऊर्जा के साथ रफ्तार पकड़ने लगी थी। लेकिन दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम में जो कुछ हुआ उसे लेकर एक बार फिर से देश में पहलवानी करने वालों को शक की नज़र से देखा जाने लगा है।
एक जमाना था जब पहलवानों को अपराधियों और गुंडे बदमाशों की तरह देखा जाता था। उन्हें नेताओं का लठैत कहा जाता था। यह सच भी है। अनेक अवसरों पर चुनावों के चलते हुई हिंसा में पहलवान भागीदार रहे। शायद ऐसा इसलिए था क्योंकि हमारे पहलवान एशियाड और ओलंपिक जैसे आयोजनों में लगतार फ्लाप हुए और कुश्ती से प्यार करने वाले विफल पहलवानों पर दोष मढ़ते रहे।
जब सुदेश, प्रेमनाथ, मास्टर चन्दगी राम, सतपाल, करतार जैसे चैंपियनों ने अन्तरराष्ट्रीय मंच पर देश का नाम रोशन किया तो लोगों की धारणा बदलने लगी। सशील और योगेश्वर दत्त के ओलंपिक पदकों ने आलोचकों की सोच एकदम बदल डाली। कुश्ती को सम्मान की नजर से देखा जाने लगा।
जब साक्षी मलिक ने रियो ओलंपिक में भारत को लगातार तीसरे ओलंपिक में पदक दिलाया तो यह माना जाने लगा कि अब कुश्ती पीछे मुड़ कर नहीं देखेगी। भारतीय कुश्ती फेडरेशन के अध्यक्ष सांसद ब्रज भूषण अपने पहलवानों से इतने प्रभावित हुए की उन्होंने यहां तक कह दिया कि अब वह कुश्ती को राष्ट्रीय खेल का दर्जा दिलाने की मांग करने जा रहे हैं।
हाकी के बुरे दिन अभी दूर नहीं हुए हैं। उसके गले में लटका राष्ट्रीय खेल का पट्टा नकली साबित हुआ। मौका और शानदार प्रदर्शन कुश्ती के हित में थे और देश की संसद में कुश्ती को राष्ट्रीय खेल बनाने की मांग उठने वाली थी। लेकिन कुछ दिनों के अंतराल में दो अखाड़ों में हुए हत्याकांड ने तस्वीर बदल कर रख दी है।
खासकर , छत्रसाल अखाड़े का नाम बदमाशी और हत्या से जुड़ना कुश्ती के लिए पाप जैसा है। इस अखाड़े से निकले सुशील और योगेश्वर ओलंपिक पदक विजेता बने। टोक्यो ओलंपिक के टिकट पाने वाले तीनों पहलवान छत्रसाल अखाड़े से जुड़े हैं। उनके अलावा तीन महिला पहलवान भी टोक्यो का टिकट पा चुकी हैं।
देश के जाने माने गुरुओं, द्रोणाचार्य, कोचों, पूर्व पहलवानों और अखाड़े चलाने वाले खलीफाओं को इस बात का डर है कि हाल के दो हत्याकांड कहीं फिर से कुश्ती को कटघरे में खड़ा न कर दें। भारतीय कुश्ती ने पिछले कुछ सालों में जो यश और मान सम्मान कमाया है वह मिट्टी में मिल चुका है। उन्हें डर है कि कहीं फिर से पहलवानों को गुंडे बदमाश न कहा जाने लगे।
आम तौर पर पहलवान शांत और सादा होते हैं। गुस्सा तो उन्हें जैसे आता ही नहीं। तो फिर यह खून खराबा कौन कर रहे हैं? कौन हैं जो कुश्ती को बदनाम कर रहे हैं? नेताओं के गुलाम, प्रॉपर्टी का धंधा करने वाले और अखाड़ों में हथियार लेकर घुसपैठ करने वाले काहे के पहलवान?
जानकारों के अनुसार हर अखाड़े के इतिहास से कुछ न कुछ विवाद जुड़े हैं। अखाड़े के मालिकाना हक को लेकर सभी अखाड़ों में लड़ाई झगड़े हुए लेकिन अब जो हो रहा है यह गुंडागर्दी है, जिसकी कीमत कुश्ती को चुकानी पड़ेगी। अफसोस इस बात का है कि जो अखाड़ा भारतीय कुश्ती का मुकुट बन चुका था उसका नाम बदनाम हुआ है। कुश्ती के लिए मुश्किल घड़ी है और अखाड़े फिर से अपराधियों के शरणस्थल बनते नजर आने लगे हैं।
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