एक समय ऐसा भी था जब विश्व हॉकी में भारत का डंका बजा करता था लेकिन पिछली शताब्दी के सत्तर के दशक में जब से एस्ट्रो टर्फ (कृत्रिम घास) हॉकी के मैदान में घुसा, उसी समय से भारत की हॉकी भी घुस गई। एस्ट्रो टर्फ और विश्व हॉकी संस्था में ढीली पकड़ की वजह से भारत का दबदबा धीरे-धीरे कमजोर पड़ता चला गया। एक समय ये हालात हो गए थे कि भारतीय टीमें ओलंपिक मेडल से बहुत दूर हो गई थी, क्वालीफाई करने तक के लिए तरसने लगी थी।
आज भी भारत को ओलंपिक के लिए क्वालीफाई करने नाको-चने चबाने पड़ते हैं औऱ मेडल तो दूरी की कौड़ी लगते है। भले ही भारतीय हॉकी के प्रशासक आज कितने ही बड़े-बड़े दावे करते हो लेकिन यह भी सच है कि उनके पूर्ववर्तियों की उदासीनता और ढीले रवैये ने भारत हॉकी की लुटिया डुबोई है।
स्वर्णिम युग: एस्ट्रो टर्फ से पहले भारतीय हॉकी
ऐस्ट्रो टर्फ पर खेलने का नियम अनिवार्य होने से पहले भारतीय हॉकी पूरी दुनिया पर राज करती थी, बस उसे अपने नये-नेवले पड़ोसी पाकिस्तान से थोड़ी-बहुत चुनौती मिला करती थी। भारत ने अपने आठ ओलम्पिक स्वर्ण पदकों (1928, 1932, 1936, 1948, 1952, 1956, 1964 और 1980) में से सात घास के मैदान पर दबदबा बनाते हुए जीते थे।
भारत एस्ट्रो टर्फ के आने से पहले साल 1928, 1932, 1936, 1948, 1952, 1956 और 1964 के ओलंपिक में स्वर्ण विजेता था। भारत घास के मैदान पर खेले गए 1966 के एशियन गेम्स और 1975 के वर्ल्ड कप का भी विजेता बना। 1960 के रोम ओलम्पिक में रजत पदक विजेता बनने के बाद भारत ने 1968 और 1972 के ओलम्पिक में दो बार कांसा जीता। इन वजहों से हॉकी को भारत का राष्ट्रीय खेल समझना जाने लगा था हालांकि सरकारी दस्तावेजों में ऐसा नहीं था।
और गिरती चली गई भारतीय हॉकी
मॉन्ट्रियल में 1976 का ओलंपिक पहली बड़ी प्रतियोगिता थी जिसमें हॉकी एस्ट्रो टर्फ के मैदान पर
खेली गई और भारत कांस्य पदक तक नहीं जीत पाया।1928 में एम्स्टर्डम में खेल शुरू होने के बाद भारतीय हॉकी के साथ ऐसा पहली बार हुआ था। एस्ट्रो टर्फ पर खेलते हुए भारत ने केवल एकमात्र ओलम्पिक गोल्ड 1980 में जीता, जिसे अपवाद माना जा सकता है क्योंकि मॉस्को की मेजबानी का बहिष्कार करते हुए जर्मनी, हॉलैड, स्पेन ब्रिटेन जैसी पश्चिमी शक्तियों ने शिरकत नहीं की थी।
इसके बाद से भारत की कोई भी टीम न तो ओलम्पिक और न ही वर्ल्ड कप जैसे बड़े टूर्नामेंट में पोडियम पर नहीं चढ़ सकी। भारत 2008 के बीजिंग ओलंपिक के लिए क्वालीफाई नहीं कर सका था और 2012 के लंदन ओलम्पिक गेम्स में सबसे आखिरी 12वें स्थान पर रहा था। तब भारतीय हॉकी के इतिहास में ये दो दर्दनाक घटनाएं पहली बार हुई थीं। हालांकि चैम्पियन्स ट्रॉफी जैसे प्रतिष्ठित टूर्नामेंट में भारत 1982 में तीसरे स्थान पर रहा था जबकि 2016 और 2018 में उपविजेता रहा। एशियन गेम्स जैसे सी ग्रेड टूर्नामेंट में भारत ने 1998 और 2014 में स्वर्ण जीता।
अब टोक्यो में पता चलेगा भारत कितना आगे बढ़ा
भारत में पहली बार एस्ट्रो टर्फ 1982 में आई थी, जब उस साल दिल्ली एशियन गेम्स के लिए शिवाजी स्टेडियम में कृत्रिम घास बिछाई गई। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी, क्योंकि हमारे खिलाड़ियों के एस्ट्रो टर्फ के अनुकूल बनने में देरी के कारण यूरोपियन देश और ऑस्ट्रेलिया गति एवं दमखम के मामले में हमसे बहुत आगे निकल चुके थे।
हालांकि हमारी तरफ से भी कुछ कोशिशे जरूर हुई हैं, खासतौर पर साल 2000 के बाद से। लेकिन यह भी सच है कि हम जर्मनी और ऑस्ट्रेलिया जैसे मजबूत टीमों के सामना उतने आत्मविश्वास के साथ आज भी नहीं कर पाते हैं। अब भारतीय खिलाड़ियों की तरक्की की अग्नि परीक्षा टोक्यो में होगी, जहां अगले साल आगामी लंपिक गेम्स खेलने जाने हैं।