Players are getting away from their culture and cultureculture

अपने संस्कार और संस्कृति से दूर हो रहे खिलाड़ी

क्लीन बोल्ड/राजेंद्र सजवान

कुछ साल पहले तक के भारतीय खिलाड़ियों पर किए गए एक शोध से पता चला है कि तीन चार दशक पहले के खिलाड़ी आज के खिलाड़ियों की तुलना में कहीं ज्यादा विनम्र, अनुशासित, गुरु और बड़ों का आदर करने वाले थे।

किसी भी खेल मुकाबले की तैयारी, मुकाबले में उतरने और जीत का जश्न मनाने का उनका अंदाज भी काफी हटकर होता था। बेशक, उनके खेल का स्तर भी ऊंचा था और कुछ खेलों में ही सही देश का नाम सम्मान भी बड़ा था।

आज के खिलाड़ियों को देखें तो उनमें से कुछ एक बड़ों के नक्शेकदम पर चल रहे हैं तो ज्यादातर ऐसे हैं जिन्हें गुरुओं और बड़े- छोटों की ज्यादा परवाह नहीं रहती। जरा सी उपलब्धि मिलने पर उनका दिमागी संतुलन बिगड़ जाता है।

गुरु शिष्य परंपरा:

भारतीय खिलाड़ियों में गुरु शिष्य की पवित्र परंपरा के दर्शन करने हों तो किसी भी अखाड़े में पहुंच जाएं। शिष्य अपने गुरु के चरणों की धूल माथे से लगाते दिखाई देंगे तो गुरु उन पर लाठी और लात घूंसे बरसाते हैं।

मज़ाल है कोई पहलवान गुरु को आंख उठा कर देखे। यह कहानी सिर्फ गुरु हनुमान अखाड़े, चांद रूप, विक्रम प्रेमनाथ, या चन्दगी राम अखाड़े की नहीं है, जहां से अनेकों नामी पहलवान निकले हैं। सभी अखाड़ों में ऐसा दृश्य नजर आता है।

भले ही आज पहलवानी रबर के मैट पर आ गई है लेकिन देश भर में मिट्टी के अखाड़ों में कुश्ती का चलन जारी है। पहलवान खुद अखाड़ा खोदते हैं और उसी मिट्टी में लोट पोट होते हैं। यही दिनचर्या उन्हें उच्च संस्कार देती है।

मैदान को नमन:

अब जरा टीम खेलों, हॉकी, फुटबाल आदि की बात कर लेते हैं। खिलाड़ी जब मैदान में उतरते हैं तो पहले ईश्वर को याद करते हुए मैदान में सिर नवाते हैं और अपने अपने अंदाज में अपने भगवान को याद करते हैं।

यह परंपरा सालों से चली आ रही है। लेकिन पिछले कुछ सालों में ख़िलाड़ियों ने अपने तौर तरीकों में बदलाव किया है। आज के खिलाड़ी पर जीत का दबाव या हार का डर इतना हावी रहता है कि वह अपनी प्राथमिकताओं को भी भूलने लगा है।

उसके उच्च संस्कार और संस्कृति जैसे शब्द चकाचौंध में विलुप्त हो रहे हैं। 70-80 के दशक के हॉकी ओलंपियन जितने विनम्र थे आज के खिलाड़ियों में से ज्यादातर उतने ही अभद्र हो गए हैं।

हॉकी से खेलते नहीं बनता पर प्रतिद्वंद्वियों पर हाकियाँ भांजना खूब जानते हैं। दूसरी तरफ दुनिया के बड़े फुटबाल और हॉकी खिलाड़ी भारत जैसे पुराने संस्कारों को अपना रहे हैं और लगातार आगे बढ़ रहे हैं।

पांव छूने से परहेज:

आज के भारतीय खिलाड़ियों का हाल यह है कि हॉकी , फुटबाल, बास्केटबॉल, वॉली बॉल,एथलेटिक,मुक्केबाजी, जिम्नास्टिक, कबड्डी आदि खेलों से जुड़े खिलाड़ियों को अपने गुरुओं और बड़ों के पांव छूने में शर्म आती है या वे इस विनम्रता को अपने शान के खिलाफ मानते हैं।

टेनिस, बैडमिंटन, तैराकी, निशानेबाजी जैसे खेलों में तो बड़ों और गुरूपन का आदर लगभग लुप्त होता जा रहा है। अक्सर देखा गया है कि जैसे जैसे भारतीय खिलाड़ी ऊंचाई की तरफ बढ़ते हैं उन्हें अपने बारे में गलतफहमी हो जाती है और जल्दी ही धड़ाम से गिर भी जाते हैं।

सुविधाओं ने बिगाड़ा:

खिलाड़ी क्यों बिगड़ रहे हैं और भारतीय सभ्यता को क्यों भूल रहे हैं, इसका खरा जवाब यह है कि अत्यधिक सुविधाओं से उनका दिमाग खराब हो गया है। वे किसी को कुछ समझते ही नहीं। फिसड्डी हॉकी और फुटबाल के खिलाड़ी गुरुओं और बड़ों का आदर भूलते जा रहे हैं।

उपलब्धि के नाम पर उनके पास कुछ भी नहीं लेकिन अकड़ ऐसी जैसे कोई बड़ा चैंपियन हो। फुटबॉलरों का हाल भी बदतर है। खेल का पहला सबक भी ध्यान से नहीं सीख पाते पर खुद को खुदा समझ बैठते हैं।

बदमिजाज क्रिकेटर:

सुनील गावस्कर और सचिन तेंदुलकर जैसे खिलाड़ियों ने जितना अनुशासित खेल जीवन जिया ,उनके बाद के क्रिकेटर उनके आस पास भी नज़र नहीं आते। उनका दिमाग इसलिए खराब हो जाता है क्योंकि एक ऐरा गैरा क्रिकेटर भी करोड़ों पा रहा है।

नतीजन उसके लिए मानवीय मूल्यों और बड़ों के आदर का महत्व ज्यादा नहीं रह जाता। राष्ट्रीय टीम में आते ही वह उदंडता और दिखावे का शिकार हो जाता है। अक्सर देखने में आया है कि स्टार बनते ही आम क्रिकेट खिलाड़ी अपने गुरु को भी भूल जाते हैं।

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