क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान
इक्कीसवीं सदी की शुरुआत से पहले जब भारतीय फुटबाल में सांसद प्रियरंजन दास मुंशी की चलती थी तो भारत में फुटबाल घुटनों के बल चल रही थी। 1951और 1962 के एशिययाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाले और चार ओलंपिक खेलों में भाग लेने वाले भारत की फुटबाल की पहचान यूँ तो 70 के दसक में धूमिल पड गई थी पर दासमुंशी के अध्यक्ष बनने के बाद से आज तक भारत ने इस खेल में कोई बड़ा तीर नहीं चलाया।
दास मुंशी के जाने के बाद जबसे प्रफुल्ल पटेल ने बागडोर संभाली है, बड़ी उपलब्धि यह रही है कि भारत ने 2017 में अंडर 17 फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप का आयोजन किया और अब 2022 में महिला अंडर 17 की मेजबानी मिली है।
विश्व फुटबाल को संचालित करने वाली संस्था यदि किसी देश को मेजबानी सौंपती है तो इसका मतलब यह हुआ कि फ़ीफ़ा की मेजबान इकाई में आस्था है और उसकी नीयत फुटबाल को और अधिक लोकप्रिय बनाने की है। चूँकि भारत को दो आयोजनों की मेजबानी से जोड़ा गया है इसलिए भारतीय फुटबाल के खैर ख्वाह मान बैठे हैं कि जल्दी ही देश में खेल के लिए बेहतर माहौल बन पाएगा।
बेशक, भारतीय फुटबाल को फ़ीफ़ा का शुक्रगुज़ार होना चाहिए। जो देश विश्व फुटबाल में कोई हैसियत नहीं रखता, जिसे विश्व कप तो दूर एशियाड में खेलने के काबिल नहीं समझा जाता, उसे बड़ी मेजबानी सौंपना सचमुच बड़ी बात है।
भारत में फ़ीफ़ा की दिलचस्पी का मतलब यह कदापि नहीं है कि उसे भारतीय फुटबाल में कोई सोया शेर नज़र आ रहा हो। दरअसल फ़ीफ़ा को भारतीय बाज़ार भा गया है। उसे पता है कि दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा आबादी वाला देश उसके खेल को चाहने वालों के लिए बड़ा प्लेटफार्म है। वह जानता है कि भले ही भारतीय फुटबाल महाफिसड्डी है लेकिन करोड़ों भारतीय फुटबाल के दीवाने हैं और चैम्पियन देशों और क्लबों को सपोर्ट करते हैं।
बालकों के अंडर 17 की सफल मेजबानी के बाद फ़ीफ़ा द्वारा भारत को महिला विश्व कप 2020 की मेजबानी सौंपी गई थी जिसे नवंबर में आयोजित किया जाना था।कोविड 19 के चलते आयोजन को फ़रवरी 2021 तक के लिए स्थगित कर दिया गया था।
लेकिन एक और स्थगन के बाद अब आयोजन भारत में ही 2022 में होगा। एक और बड़े आयोजन के बाद क्या भारत में फुटबाल की हालत में कोई सुधार हो पाएगा, कहा नहीं जा सकता। साल दर साल भारत में फुटबाल का स्तर गिरा है। शर्मनाक बात यह है कि एशियाई खेलों में भाग लेने के लए भी पर्याप्त योग्यता हमारे खिलाड़ियों में नहीं देखी गई।
जहाँ तक महिला फुटबाल की बात है तो हालत और भी ज़्यादा खराब है। ऐसा इसलिए है क्योंकि महिलाओं की राष्ट्रीय चैंपियनशिप और विभिन्न आयुवर्ग के आयोजन विधिवत नहीं किए जाते। माता पिता अपनी बेटियों को फुटबाल में कम ही डालते हैं। स्कूल और कालेज स्तर पर बालिकाओं के एज ग्रुप टूर्नामेंट यदा कदा ही आयोजित किए जाते हैं।
सच्चाई यह है कि फुटबाल फ़ेडेरेशन ने महिलाओं को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया।पिछले 50 सालों पर नज़र डालें तो महिला फुटबाल जहाँ की तहाँ खड़ी है। कुछ एक प्रदेशों को छोड़ दें तो दास मुंशी के कार्यकाल की पंक्चर फुटबाल के घाव और गहरे हुए हैं।