क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान
भले ही भारतीय फुटबाल फ़ेडेरेशन और देश में फुटबाल का कारोबार करने वाले लाख दावे करें और फुटबाल प्रेमियों को झूठे आँकड़े परोसें लेकिन किसी भी खेल का भला तब तक संभव नहीं है जब तक उनका कोचिंग सिस्टम प्रभावी नहीं होगा। देश के जाने माने फुटबाल कोच, अनेक किताबों के लेखक और बाग्लादेश की फुटबाल को सजाने सँवारने वाले बीरू मल का ऐसा मानना है।
उनके अनुसार अपने देश में अच्छे कोचों और फुटबाल जानकारों की कोई कद्र नहीं है। उन्हें सरकारी बाबुओं की तरह ट्रीट किया जाता है। यही कारण है कि एनआईएस के निदेशक रहे बीरू मल ने 13 साल तक बांग्लादेश की उन जूनियर टीमों को सिखाया पढ़ाया, जिन्होने आगे चल कर भारत को कड़ी टक्कर दी।
उनके अनुसार भारत में अच्छे और क्वालीफाइड कोचों की हमेशा से कमी रही है। लेकिन यह भी सच है कि साई और फुटबाल फ़ेडेरेशन ने काबिल कोचों की कभी कद्र नहीं की। जहाँ एक ओर विदेशी कोच लाखों में खेलते रहे तो अपनों को उपेक्षा का शिकार होना पड़ा। भारतीय अधिकारियों पर गोरी चमड़ी का रंग कुछ इस कदर असर कर गया है कि अपने अधिकारियों को स्वदेशी कोचों की सही राय भी ग़लत लगती है। इतना ही नहीं हमारे खिलाड़ी विदेशी कोचों के सामने भीगी बिल्ली बने रहेते हैं पर अपने कोचों को कुछ नहीं समझते।
Indian Football needs quality coaches —Biru
Vincenzo Alberto Anne’s (Italian) coach who led Gokuldam team into champion side said there are talent in India , bG But Indian football needs better coaches . Earlier British coach Constantine who coached Indian team far a long, too had commented the same. As a coach, I can understand and believe it and take it at my heart. It is a matter of real concern at the moment.
Never in history we faced such criticism, rather foreign coaches have been appropriating the Indian coaches earlier.
The problem faced today is a question mark on producer and product, ideologically on producers and ethically on product.
If the standard of game is declining coaches have nothing to do, but the standard has to go up coaches can do a lot. But you need to identify the coaches that itself is a hell of task. Talented players need talented coaches. A bad coach will spoil the talent. A double loss. It is happening.
ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब खिलाड़ी कोचों पर भारी पड़ते हैं। थोड़ा सा नाम सम्मान पाने के बाद वे खुद को कोच से भी बड़ा समझने लगते हैं। ऐसे खिलाड़ियों का बर्ताव खेल के लिए घातक होता है। कई कोच अपने स्वार्थों के चलते अयोग्य और जुगाड़ू खिलाड़ियों के सामने मिमियाते देखे जाते हैं।
श्री मल को डर है कि देश का कोचिंग सिस्टम जिस दिशा में जा रहा है उसे देखते हुए नहीं लगता कि भारत कभी खेल ताक़त बन पाएगा| फिर चाहे कितने भी दावे कर लें, झूठ बोल लें। यहाँ कामयाब कोच का मतलब यह है कि उसे द्रोणाचार्य अवॉर्ड मिला या नहीं। कई ऐसे महाशय हैं जिन्हें अपनी पत्नी के कारण द्रोणाचार्य मिला तो कुछ एक पदक विजेता खिलाड़ियों को अपना चेला बनाने और बताने में माहिर थे इसलिए सम्मान पा गए। उन्हें भारत में कोचिंग सिस्टम मृतवत लगता है, जोकि कुछ अवसरवादियों के इशारे पर चल रहा है।
अपने देश के कोचिंग सिस्टम की सबसे खराब बात उन्हें यह नज़र आती है कि हमारे कोच फ़ेडेरेशन और साई के अधिकारियों के तलवे चाटते हैं, विदेशी कोचों की चाकरी करते हैं लेकिन अपने कोचों को ज़रा भी बर्दाश्त नहीं करते। कई कोच ऐसे हैं जोकि पूरी सर्विस एक केंद्र पर बिता देते हैं। अपने संबंधों का फ़ायदा उठा कर काबिल कोचों का हक मारते हैं और खेल अवॉर्ड एवम् रिवॉर्ड पाते हैं।
बीरू कहते हैं कि विदेशी कोच अपने काम और परिणाम पर ध्यान देते हैं तो भारतीय कोच अधिकारियों की चाकरी, अपनों की चुगली को ही प्रोफ़ेशन समझते हैं। उनके अनुसार यदि भारत को खेलों में प्रगति करनी है तो सबसे पहले कोचों और कोचिंग सिस्टम को सुधारना होगा। दोनों ही भारतीय खेलों का अभिशाप बन गए हैं।