क्लीन बोल्ड /राजेंद्र सजवान
पिछले सात दिनों में भारतीय हॉकी कहाँ से कहाँ जा पहुंची है, इस बारे में शायद ही किसी ने सोचा होगा। लेकिन कुछ लोग हैं जोकि तमाम निंदा काट के बावजूद चुपचाप अपना काम अंजाम दे रहे थे। उन्हें हम जैसे आलोचकों और दिन रात हॉकी को कोसने वालों की जैसे कोई परवाह नहीं थी। वे किसी की परवाह किए बिना अपनी धुन में थे, जिसका रिजल्ट टोक्यो में घोषित हो गया है। बस ‘मार्क्स शीट’ आनी बाकी है।
1980 में भारत ने अपना आठवां और अब तक का आखिरी ओलंम्पिक स्वर्ण जीता था। तत्पश्चात हर ओलंम्पिक में बड़े बड़े दावों के साथ जाते रहे और खाली हाथ आते रहे। हॉकी फेडरेशन, हॉकी इंडिया, खेल मंत्रालय और खिलाड़ी लगातार बेहतर प्रदर्शन के दावे करते रहे लेकिन 41 साल बीतने के बाद आज जब भारतीय पुरुष और महिला टीमें ओलंम्पिक के सेमीफाइनल में पहुंची हैं तो पूरा देश बिना पदक मिले ही खुशी से झूम रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि भारतीय हॉकी सालों बाद ही सही एक बार फिर से अपने चाहने वालों का विश्वास जीतने में सफल रही है।
जैसा कि हर ओलंम्पिक से पहले होता रहा है, बड़े बड़े वादे और दावे करने के बाद भी हॉकी ने जब अच्छे नतीजे नहीं दिए तो आम हॉकी प्रेमी का विश्वास उठना स्वाभाविक था। टोक्यो की उड़ान पकड़ने से पहले भी यही सब सुनने को मिला।
शायद ही किसी हॉकी प्रेमी ने ध्यान दिया होगा। जिस दिन पुरुष टीम को ऑस्ट्रेलिया ने एक के मुक़ाबले सात गोलों से रौंदा, साफ हो गया कि भारतीय हॉकी नहीं सुधरने वाली। हर कोई हॉकी इंडिया, खिलाड़ियों , विदेशी कोचों और तमाम को कोस रहा था। किसको पता था कि एक शर्म नाक हार भारतीय हॉकी का कायाकल्प कर देगी।
हालांकि फिलहाल कुछ भी कहना या भविष्यवाणी करना जल्दबाजी होगी लेकिन पुरुष और महिला टीमों ने पिछले सप्ताह जैसा खेल दिखाया है, ऐसे लगता है कि जैसे भारतीय हॉकी ने रफ्तार पकड़ ली है। जो खिलाड़ी एस्ट्रोटर्फ पर ठीक से चल नहीं पा रहे थे अब प्रतिद्वंद्वी टीमों को दौड़ा दौड़ा कर मार रहे हैं।
पुरुष टीम ने न्यूज़ीलैंड, स्पेन, अर्जेन्टीना और इंग्लैंड को जिस रफ्तार और दमखम से छकाया, उसकी हर कोई दाद दे रहा है। महिला टीम के बारे में कहा जा रहा था कि उसका ओलंम्पिक खेलना ही बड़ी बात है पर यह टीम तो बात ही बात में सेमीफाइनल तक जा चढ़ी है। ऑस्ट्रेलिया को हरा कर महिलाओं ने पुरुष टीम की हार का जो बदला चुकया उसे हॉकी एक्सपर्ट्स हैरानी से देख रहे हैं।
देखना यह होगा कि भारतीय टीमों का सफर कहाँ तक जारी रहता है। कोई पदक मिले या ना मिले, हमारी हॉकी को जीत का मंत्र मिल गया है। दोनों ही टीमों ने अपनी फिटनेस और मारक क्षमता से हॉकी जगत को हैरान किया है। संभवतया, पिछले चालीस सालों में पहली बार ऐसा मौका आया है जब आम भारतीय अपने खिलाड़ियों पर गर्व कर सकता है। इसे कहते हैं दिल जीतना। इस बार नहीं तो आगे सही। अब पदक भी ज्यादा दूर नहीं है।
लेकिन ध्यान देने वाली बात यह होगी खिलाड़ियों की आड़ में मौज लूटने वाले अधिकारी, कोच और अन्य अवसरवादी कहीं फिरसे खेल न बिगाड़ दें। अब जीत की राह पर चलना ही हॉकी का लक्ष्य होना चाहिए।