क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान
मेजर ध्यानचंद और सरदार बलबीर सिंह यदि भारतीय हॉकी के चांद थे तो सितारा खिलाड़ियों की भी कमी नहीं थी। हॉकी को राष्ट्रीय खेल समझ उससे प्यार करने वाले भी कम नहीं थे। लेकिन हॉकी की कसमें खाने वाले और खिलाड़ियों की हर अदा पर जान न्योछावर करने वाले लगातार घट रहे हैं और कुछ एक सालों में शायद खोजे नहीं मिलेंगे। ऐसा इसलिए ,क्योंकि भारतीय हॉकी बेहद बुरे दौर से गुजर रही है। भले ही हॉकी के कर्णधार कुछ भी कहें, कितने भी दावे करें यह खेल लगातार अपनी पहचान खो रहा है। कारण कई हैं, जिन पर नज़र डालने का प्रयास करते हैं।
सितारों की भरमार:
1964 में जब भारतीय हॉकी अपनी कामयाबी के चरम पर थी, नेहरू टूर्नामेंट का अस्तित्व में आना एक बड़ी ऐतिहासिक घटना थी। आठ बार के ओलंपिक चैंपियन भारत के स्टार खिलाड़ियों को खेलते देखने का जो सुख दिल्ली के हॉकी प्रेमियों को नसीब हुआ उसको याद कर पुराने खिलाड़ी और उनके प्रशंसको के चेहरे की चमक देखते ही बनती है।
तब महान खिलाड़ी बलबीर सिंह सीनियर, चरणजीत सिंह, शंकर लक्ष्मण, गुरबक्श, पृथीपाल, हरबिंदर सिंह, अजित पाल सिंह, कर्नल बलबीर ,अशोक कुमार, गणेश, गोविंदा, फिलिप्स, इनाम उर रहमान , मुखबैन सिंह, असलम शेर खान, सुरजीत सिंह और बाद के सालों में मोहम्मद शाहिद, ज़फर इकबाल, आर पी सिंह, जगबीर सिंह, धन राज पिल्ले, मुकेश कुमार आदि के जौहर देखने हॉकी प्रेमी हजारों की संख्या में मौजूद रहते थे।
तब हर खिलाड़ी अपने आप में सितारा था। हर एक के खेल की अलग पहचान थी। उन्हें देखने मीलों दूर से हॉकी प्रेमी आते थे। मुम्बई, जालंधर, बंगलोर और देश में जहां कहीं बड़े आयोजन होते थे हर खिलाड़ी अपने चाहने वालों से घिरा रहता था। आज की हॉकी में ऐसे चमकदार खिलाड़ी नज़र नहीं आते। कारण अच्छे खिलाड़ियों और दमदार टीमों का अकाल सा पड़ गया है।
क्लब और संस्थान की टीमों में था दम:
भारतीय हॉकी जब अपने चरम पर थी तो देश के सौ से भी अधिक खिलाड़ियों के नाम हर किसी की जुबान पर रहते थे। तब भारतीय रेलवे, नॉर्दन रेलवे, एस आर सी मेरठ, इंडियन नेवी, कोर ऑफ सिग्नल, इंडियन एयर लाइन्स, वेस्टर्न रेलवे, पंजाब पुलिस, सीमा बल, ए एस सी जालंधर और कई अन्य टीमों में अनेक खिलाड़ी ऐसे थे जिन्हें राष्ट्रीय टीम में शामिल किया जा सकता था। सच तो यह है तब किसी भी क्लब या संस्थान की टीम आज की भारतीय टीम से बेहतर होती थी। वर्तमान टीम पर गौर करें तो एक दो को छोड़ बाकी खिलाड़ियों को कम लोग ही जानते हैं।
महानायक ध्यानचंद : दद्दा ध्यानचंद 1928 से 1936 तक के ओलंपिक में खिताब जीतने वाली भारतीय टीमों के नायक रहे लेकिन उनका साथ देने वाले खिलाड़ियों में उनके अपने अनुज रूप सिंह, दारा, फिलिप,मसूद और कई अन्य नाम शामिल हैं। यह सही है कि ध्यानचंद अचूक निशानेबाज थे और उनके रहते भारतीय हॉकी ने जर्मनी को उसी के घर पर मात दी। तत्पश्चात भारतीय हॉकी खिलाड़ी राष्ट्रीय हीरो बन गए। यहीं से भारत में हॉकी खिलाड़ियों को मान-सम्मान देने की परंपरा की शुरुआत हुई।
बलबीर सीनियर दूसरे महानायक:
दादा ध्यानचंद के बाद भारत में सितारे खिलाड़ियों की जैसे लंबी कतार लग गई। दूसरे महानायक के रूप में बलबीर सिंह सीनियर भारतीय हॉकी को बुलंदियों तक ले गए। उनके खेल को ध्यानचंद की तरह सराहा गया। 1948,52 और56 के ओलंपिक में खूब खेले। बेशक बलबीर ने एक से बढ़कर एक शानदार प्रदर्शन किए। अनेक आकर्षक गोल जमाए लेकिन उनकी टीम में सितारा ख़िलाडियों की भरमार रही। के डी बाबू, पिंटो, किशन लाल, जेंटल, केशव दत्त, धर्म सिंह, रघुबीर लाल, शंकर लक्ष्मण, बालकिशन, गुरदेव, उधम सिंह आदि खिलाड़ियों को हॉकी प्रेमियों ने सरमाथे बैठाया।
विश्वविजेता भी कुछ कम ना थे:
975 की विश्व विजेता भारतीय टीम में कप्तान अजीतपाल का कद बहुत ऊंचा था।अशोक ध्यान चंद, गोविंदा, हरचरण, असलम शेर खान, सुरजीत सिंह, फिलिप्स, बलदेव सिंह, मोहिंदर सिंह और तमाम खिलाड़ियों के चर्चे आम थे। ऐसी दमदार टीम फिर कभी देखने को नहीं मिली।
नकली घास पर कुछ असली खिलाड़ी:
1976 का मॉन्ट्रियल ओलंपिक नकली घास एस्ट्रो टर्फ पर खेला गया। यहीं से भारतीय हॉकी का पतन शुरू हुआ और आज तक नहीं रुक पाया है। नकली घास पर दमदार और असली खिलाड़ी कम ही देखने को मिले। शाहिद, ज़फर इकबाल, सोमैया, परगट, एमपी सिंह, जगबीर सिंह दिलीप तिर्की और कुछ अन्य खिलाड़ियों ने प्रभावित किया। लेकिन सितारा खिलाड़ियों वाली टीम फिर कभी नहीं बन पाई। हॉकी पंडितों की मानें तो धनराज पिल्ले आखिरी सितारा खिलाड़ी थे, जिनकी कप्तानी में भारत ने 1998 के बैंकाक एशियाड में खिताबी जीत दर्ज की थी।