The era of rallies, false promises and announcements regarding elections has started

गेंद खिलाड़ियों के पाले में; धोखेबाज नेताओं का खेला कर दें!

क्लीन बोल्ड /राजेंद्र सजवान

देश में चुनावों को लेकर रैलियों, झूठे वादों और घोषणाओं का दौर शुरू हो चुका है। विभिन्न प्रदेशों में तमाम राजनीतिक पार्टियां अपने अपने अंदाज में अपना अपना झूठ और फरेब परोस रही हैं। देशवासियों को गुमराह करने की हर चाल चली जा रही है। बिजली, पानी, राशनऔर तमाम साधनों को फ्री में बाँटने के नारे उछाले जा रहे हैं। लेकिन एक भी पार्टी या नेता ऐसा नहीं है जिन्हें देश के खिलाडियों की सुध हो।

आज के भारतीय खिलाड़ी की सबसे बड़ी चिंता रोजी रोजगार की है। अपना सारा जीवन और जीवन के महत्वपूर्ण साल खेल मैदान पर गुजारने के बाद वह खुद को छला गया महसूस करता है। जब उसे होश आता है तो उसे पता चलता है कि खेलते खेलते कब उसकी नौकरी पाने की उम्र निकल गई।

चूँकि रोजी रोटी का कोई जुगाड़ नहीं हो पाता इसलिए घर-बाहर हर तरफ उसे ताने सुनने पड़ते हैं। दस बीस साल खेलों को देने के बाद वह खुद को असहाय महसूस करता है। घर परिवार में उसका कद घट जाता है। यहाँ तक कि अपनों में वह पराया और तिरस्कृत महसूस करने लगता है।

हर खिलाड़ी नीरज चोपड़ा जैसा कामयाब तो हो नहीं सकता। हर एक ओलम्पिक और विश्व मैडल नहीं जीत पाता। लाख कोशिश के बावजूद भी कुछ खिलाडी ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सफल हो पाते हैं। जिनका कोई खैर ख़्वाह नहीं होता या जिनकी मेहनत में कमी रह जाती है, उनके लिए रोजगार बड़ी समस्या बन जाता है। लम्बी कतारों में खड़े हो कर और फ़ार्म भर क़र ज्यादातर टूट जाते हैं और घर वालों के ताने सुन क़र कुछ भी गलत क़र गुजरते हैं।

जो खिलाडी तमाम मेहनत के बावजूद बड़ी पहचान नहीं बना पाते, उनके लिए जीवन दूभर हो जाता है। ऐसे खिलाडी देश में करोड़ों की संख्या में हैं और बेरोजगारों कि कतार में खड़े खड़े उनकी कमर टूट चुकी है। क्या देश के सत्ता पक्ष और विपक्ष के पास ऐसे अभागे खिलाडियों के लिएकोई योजना, कोई रणनीति है या हमेशा की तरह इस बार भी उनकी चुनावी घोषणाओं में कोरा झूठ परोसा जाएगा?

खिलाड़ी और खेल संघों के पास यही मौका है। हर बार देश के नेता झूठ बोल क़र और सीधे सच्चे खिलाड़ियों को बरगला कर अपना उल्लू सीधा क़र जाते हैं। उनकी बेरोजगारी और गरीबी बढ़ती जा रही है। झूठे और मक्कार नेता हर बार उन्हें बेवकूफ बना जाते हैं। सौ साल के ओलम्पिक इतिहास में मात्र दो व्यक्तिगत ओलम्पिक स्वर्ण जीतने वाले देश के अवसरवादी नेता बार बार ढोल पीटते हैं कि वे भारत को खेल महाशक्ति बनाने के लिए प्रयासरत हैं। लेकिन क्या भूख और बेरोजगारी में खेल कर यह देश अमेरिका और चीन जैसी खेल ताकत बन पाएगा?

यही मौका है, देश और तमाम प्रदेशों के खिलाडी वोट के लिए हाथ पसारने वाले नेताओं से पूछ सकते हैं कि खेल उनकी प्राथमिकता में हैं या नहीं या यूँ ही खिलाडियों को बनाते आ रहे हैं? अब और दो साल बाद होने वाले आम चुनाव तक गेंद भारतीय खिलाडियों के पाले में है।

सभी राज्यों के खिलाड़ी एकजुट हो क़र अपनी अपनी सरकारों पर खेल प्रोत्साहन, साफ़ सुथरी चयन प्रक्रिया, रोजगार और अन्य जरुरी सुविधाओं के लिए दबाव बना कर अपना जायज हक़ मांग सकते हैं। अब नहीं तो कभी नहीं। जीतने के बाद हमारे नेता हाथ आने वाले प्राणी कदापि नहीं हैं। मतलब हल होने के बाद इनकी दुम पर पांव रखना किस कदर जोखिम भरा होता है, हर कोई जानता है।

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