क्लीन बोल्ड/राजेंद्र सजवान
शुरुआती नतीजों के आधार पर भारतीय हॉकी की चीर फाड़ करना जल्दबाजी होगी । फिलहाल, अपने खिलाड़ियों , टीम प्रबंधन, कोचों और हॉकी के कर्णधारों को यह याद दिलाते हैं कि 56 साल पहले इसी टोक्यो शहर ने भारतीय हॉकी का पराक्रम देखा था। तब हम चैंपियन बने थे और आज कहाँ हैं, जल्द पता चल जाएगा। डर इस बात का है कि कहीं टोक्यो भारतीय हॉकी की कब्रगाह ना बन जाए?
इस बार ओलंम्पिक में भारतीय हॉकी टीम पदक जीत पाती है या नहीं, फैसला होना बाकी है। लेकिन 1964 में जब हमारे खिलाड़ी जापान की राजधानी में अवतरित हुए तो उनके अंदर बदले का लावा फूट रहा था। उनका एक और सिर्फ एक लक्ष्य था, हर हाल में पाकिस्तान से हिसाब चुकता करना है और चार साल पहले रोम ओलंम्पिक में गंवाया खिताब वापस पाना है।
आज़ादी मिलने के बाद भारत ने 1948,52 और56 के खेलों में अपनी बादशाहत बनाए रखी। अंततः पाकिस्तान ने पहली बार 1960 के रोम ओलंम्पिक में भारत को हरा कर चैन की साँस ली और अपना पहला ओलंम्पिक स्वर्ण अर्जित किया। लेकिन चार साल बाद जब दोनों परंपरागत प्रतिद्वंद्वी आमने सामने हुए तो चरणजीत सिंह की कप्तानी वाली भारतीय टीम ने हिसाब चुकता कर दिखाया।
विजेता टीम में हरिपाल कौशिक, शंकर लक्ष्मण, गुरबक्स, धर्म सिंह, प्रिथीपाल, मोहिन्दरलाल, राजिंदर सिंह, हरबिंदर सिंह, उधम सिंह, बलबीर सिंह जैसे धुरंधर खिलाड़ी शामिल थे। सही मायने में भारत ने अपना सातवां और असली गोल्ड टोक्यो में जीता था। 1980 का आठवां गोल्ड अमेरिकी बायकॉट का पुरस्कार माना जाता है।
एक बार फिर भारतीय हॉकी टीम टोक्यो में है और खिताबी जीत के साथ अपने गौरव की वापसी के लिए गिर पड़ रही है। फर्क सिर्फ इतना है कि हमारा कट्टर प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान क्वालीफाई नहीं कर पाया है और भारत भी पहले जैसा शक्तिवान नहीं रहा है। लेकिन यदि भारतीय खिलाड़ी पदक जीत पाते हैं तो भारत और एशियाई हॉकी एक बार फिर से टोक्यो से अपनी विजय यात्रा की शुरुआत कर सकती है।
भले ही हमारे पास पहले जैसे चैंपियन खिलाड़ी नहीं हैं और हमारा रिकार्ड भी लगातार खराब होता चला गया लेकिन टोक्यो यदि हमारी हॉकी के लिए फिर से भाग्यशाली रहा तो भारत में हॉकी खोया सम्मान पा सकती है। इतना जरूर है कि भारत ने अपना सातवां गोल्ड घास के मैदान पर जीता था। तब कलात्मक खेल का चलन था जिसमें भारत और पाकिस्तान के खिलाड़ी कौशल के धनी माने जाते थे।
नकली घास के मैदान पर खेलते हुए 45 साल हो गए हैं। ऐसे में अब किसी बहाने की गुंजाइश नहीं बची है। बस एक पदक भारतीय हॉकी की वापसी का संकेत हो सकता है। लेकिन क्या यह टीम पदक जीतने की दावेदार लगती है?