क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान
भले ही महामारी ने पूरी दुनिया में तबाही मचा रखी है लेकिन खेल गतिविधियां जैसे तैसे चल रही हैं। खासकर, यूरोपीय फुटबाल का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा है। तमाम देशों की फुटबाल लीग के बाद अब यूरो कप शुरू होने जा रहा है।
जिसका भारतीय फुटबाल प्रेमी भी बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। चूंकि अपनी फुटबॉल मरणासन पड़ी है इसलिए क्वालिटी फुटबाल के लिए हमें भी यूरोप और लैटिन अमेरिका भाता है। भारतीय फुटबाल की बड़ी बाधा सिर्फ़ खराब प्रदर्शन नहीं है। समस्या यह है कि फुटबॉल खेलें तो कहाँ?
प्रधान मंत्री ने जब अंडर 17 फुटबाल विश्वकप टूर्नामेंट के लिए शुभकामना संदेश दिया था और कहा था कि अधिकाधिक बच्चे, युवा और सभी वर्ग के युवक युवतियाँ फुटबाल खेलें, तब भी यह पूछा गया था कि कहाँ खेलें? इस सवाल का जवाब ना तो सरकार के पास है और फुटबाल फ़ेडेरेशन को तो जैसे ऐसी बातों से कोई सरोकार ही नहीं है।
इसे भारतीय फुटबॉल का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि देश के सैकड़ों शहरों, तमाम प्रदेशों, लाखों स्कूलों और कई सौ फुटबाल क्लबों के पास खेलने के लिए कोई मैदान नहीं है। देश की राजधानी के लगभग सौ क्लब ,हज़ार से अधिक स्कूल और सैकड़ों संस्थानों की फुटबाल भी सिर्फ़ कागजों पर खेली जा रही है|
सरसरी नज़र डालें तो दिल्ली का अंबेडकर स्टेडियम और अक्षरधाम स्टेडियम ही खिलाड़ियों के लिए खुले हैं। लेकिन इन स्टेडियमों पर आम खिलाड़ी अभ्यास नहीं कर सकते। कुछ कॉरपोरेट ,दिल्ली साकर एसोसिएशन और प्राइवेट टूर्नामेंट कराने वाले ही इन स्टेडियमों का भारी खर्च उठा सकते हैं।
यूँ तो कोलकाता ,गोआ , महाराष्ट्र मे कुछ चुनिंदा क्लबों के पास अपने मैदान हैं पर दिल्ली आज तक अपने फुटबॉल खिलाड़ियों के लिए किसी मैदान या स्टेडियम की व्यवस्था नहीं करा पाई। दिल्ली एशियाड 1982 के लिए नेहरू स्टेडियम को फुटबॉल और एथलेटिक के लिए बनाया गया था। कुछ समय बाद इस स्टेडियम की छाती पर क्रिकेट पिच बना दी गई।
दिल्ली और देशभर के क्लब अधिकारी हैरान -परेशान हैं। एक तो तंगहाली , ऊपर से खिलाड़ियों के लिए अभ्यास का कोई जुगाड़ नहीं । उनके अनुसार फेडरेशन की तरह दिल्ली की फुटबॉल का भी दुर्भाग्य रहा है कि उसे कभी भी ईमानदार और फुटबॉल के लिए मरने मिटने वाले अधिकारी नहीं मिले।
फिरभी बड़ी समस्या यह है कि स्थानीय खिलाड़ी और क्लब कहाँ अभ्यास करें और फुटबाल के बड़े छोटे टूर्नामेंट कहाँ खेले जाएँगे यह देशव्यापी समस्या है। बगाल, गोवा, केरल और चंद अन्य प्रदेशों के बड़े क्लबों के पास अपने मैदान हैं लेकिन हज़ारों क्लब दयनीय हालत में हैं।
सरकार और खेल मंत्रालय भले ही फुटबॉल की प्रगति के लिए गंभीर हैं लेकिन उनकी नाक के नीचे तमाम मैदानों, पार्कों, और गलियों में क्रिकेट का कब्जा है। हर तरफ गेंद बल्ले नज़र आते हैं। फुटबाल का चलन तो जैसे ख़त्म ही हो गया है। बीमारी से छुटकारा पाने के बाद खिलाड़ी फिर से खेलने के लिए तैयार होंगे लेकिन खेलेंगे कहाँ? खेलने के पूरे देश में फुटबॉल मैदान नहीं है। तो फिर भारतीय फुटबाल का भविष्य कैसे सुरक्षित हो सकता है?