…क्योंकि एज फ्रॉड हमारा राष्ट्रीय चरित्र है!

  • रोनाल्डो, मेसी, नेमार, हॉलैंड, रोबर्ट लेवांडोस्की, साडियो माने, किलियन एम्बाप्पे और दर्जनों अन्य फुटबॉलरों ने अपनी सफलता के पीछे बहुत छोटी उम्र में मैदान पर उतरना और अपने से बड़ी उम्र के खिलाड़ियों को चुनौती देने का जज्बा बताया
  • ज्यादातर ने कहा कि 10-11 साल की उम्र में क्लब और देश की अंडर-13 टीम में शामिल कर लिये गए और 15-17 साल तक पहुंचते-पहुंचते उन पर बड़े क्लबों और राष्ट्रीय चयनकर्ताओं की नजर पड़ी और उनमें से बहुत से देश के लिए खेलने लगे थे
  • जॉन क्रायफ, गर्ड मुलर, स्टेफिनो, जिनेदिन जिदान, माइकल प्लातिनी, रोनाल्डो, रोनाल्डिन्हो में से ज्यादातर उस उम्र में देश की टीमों में शामिल कर लिए गए, जब भारत में आम फुटबॉल खिलाड़ी खेल का पहला सबक भी नहीं सीख पाते
  • जहां एक ओर पेले महान, डिएगो माराडोना, मेसी, रोनाल्डो ने दस साल की उम्र में 13 साल के आयुवर्ग में भाग लिया तो इसके ठीक उलट आम भारतीय खिलाड़ी 13 साल की उम्र में 10 साल के आयुवर्ग में खेलता है
  • 20 साल का होने पर उसे भ्रष्ट कोच और बर्बाद सिस्टम के चलते तीन-चार साल छोटे आयुवर्ग में उतरने के लिए विवश किया जाता है, अगर स्कूल स्तर पर विभिन्न आयुवर्गों की जांच-पड़ताल की जाए तो हर वर्ग में दर्जनों बड़े और अधेड़ उम्र के खिलाड़ी बच्चों को कुचलते देखे जा सकते हैं

राजेंद्र सजवान

हाल ही में एक ब्रिटिश पत्रिका के सर्वे में रोनाल्डो, मेसी, नेमार, हॉलैंड, रोबर्ट लेवांडोस्की, साडियो माने, किलियन एम्बाप्पे और दर्जनों अन्य फुटबॉलरों की जीवन यात्रा पर विस्तृत लेख छपे हैं और उनकी कामयाबी व उन पर हुई धनवर्षा के बारे में ऐसा बहुत कुछ प्रकाशित हुआ, जो कि भविष्य के खिलाड़ियों के लिए मार्गदर्शन साबित हो सकता है। इन सभी खिलाड़ियों ने अपनी सफलता के पीछे जो खास बात और बड़ा कारण बताया, वो था बहुत छोटी उम्र में मैदान पर उतरना और अपने से बड़ी उम्र के खिलाड़ियों को चुनौती देने का जज्बा। अधिकतर खिलाड़ियों के अनुसार, जब वे 6-7 साल के थे, माता-पिता या पूर्व खिलाड़ियों के प्रयासों से वे प्रारंभिक गुर सीखने लगे थे। ज्यादातर ने कहा कि 10-11 साल की उम्र में क्लब और देश की अंडर-13 टीम में शामिल कर लिये गए। 15 और 17 साल तक पहुंचते-पहुंचते उन पर बड़े क्लबों और राष्ट्रीय चयनकर्ताओं की नजर पड़ी और उनमें से बहुत से देश के लिए खेलने लगे थे।

   थोड़ा पीछे चलें तो पेले और माराडोना बहुत छोटी उम्र में करिश्माई प्रदर्शन करने लगे थे। अपनी प्रतिभा के दम पर वे दुनिया के टॉप क्लबों और क्रमश: ब्राजीली और अर्जेंटीना की फुटबॉल में बड़ा नाम बनकर उभरे और देखते ही देखते विश्व फुटबॉल जगत में छा गए। इसी प्रकार जॉन क्रायफ, गर्ड मुलर, स्टेफिनो, जिनेदिन जिदान, माइकल प्लातिनी, रोनाल्डो, रोनाल्डिन्हो में से ज्यादातर उस उम्र में देश की टीमों में शामिल कर लिए गए, जब भारत में आम फुटबॉल खिलाड़ी खेल का पहला सबक भी नहीं सीख पाते।

 

  अब जरा भारतीय फुटबॉल की बात भी कर ली जाए। कुछ एक चर्चित खिलाड़ियों को छोड़ दें तो ज्यादातर 14 से 18 साल की उम्र में फुटबॉल का पहला पाठ शुरू करते हैं। जहां एक ओर पेले महान, डिएगो माराडोना, मेसी, रोनाल्डो ने दस साल की उम्र में 13 साल के आयुवर्ग में भाग लिया तो इसके ठीक उलट आम भारतीय खिलाड़ी 13 साल की उम्र में 10 साल के आयुवर्ग में खेलता है। 20 साल का होने पर उसे भ्रष्ट कोच और बर्बाद सिस्टम के चलते तीन-चार साल छोटे आयुवर्ग में उतरने के लिए विवश किया जाता है। अगर स्कूल स्तर पर विभिन्न आयुवर्गों की जांच-पड़ताल की जाए तो हर वर्ग में दर्जनों बड़े और अधेड़ उम्र के खिलाड़ी बच्चों को कुचलते देखे जा सकते हैं।

बंगाल, महाराष्ट्र, दिल्ली, पंजाब, यूपी, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम, हरियाणा और तमाम राज्यों में एज फ्रॉड यानी उम्र की धोखाधड़ी हमारा राष्ट्रीय चरित्र बन गया है।    बेशक भारतीय फुटबॉल तमाम घोटालों और अनियमितताओं से घिरी है लेकिन यदि हमें पेले, माराडोना, रोनाल्डो, मेसी जैसे चैम्पियन पैदा करने हैं तो उम्र की धोखाधड़ी को रोकना जरूरी है, जिसकी चपेट में न केवल भारतीय फुटबॉल बल्कि देश में तमाम खेल दम तोड़ रहे हैं।

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