खेलों में परिवारवाद, राजनीतिक परिवारवाद से भी ज्यादा घातक!

  • जब परिवारवाद खेलों में घुसपैठ करता है तो परिणाम राजनीति से भयंकर होते हैं, क्योंकि नेता का बेटा नेता बन जाता है और वह झूठ-सच और धोखाधड़ी से बाप-भाई के पदचिन्हों पर चलना सीख ही जाता है
  • हॉकी, फुटबॉल, कुश्ती, बैडमिंटन, जूडो, कराटे, एथलेटिक्स, क्रिकेट और तमाम खेलों में परिवारवाद खेलों की जड़ों में तेजाब डालने का काम कर रहा है
  • लेकिन खेलों में परिवारवाद तब ही सफल रहता है जब खिलाड़ी अपने पिता और भाई की विरासत को बेटे आगे बढ़ाते हैं
  • मसलन, लाला अमरनाथ के बेटे मोहिंदर और सुरेंदर अमरनाथ ने अपने पिता का नाम रोशन करने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी
  • हॉकी के सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद के बेटे अशोक ध्यानचंद ने अपने पिता को निराश नहीं किया
  • महान एथलीट मिल्खा सिंह के बेटे जीव मिल्खा ने गोल्फ में खूब नाम कमाया

राजेंद्र सजवान

राजनीति में परिवारवाद को लेकर सालों से हुड़दंग मचा है। सत्ता पक्ष और विपक्ष एक-दूसरे पर परिवारवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाते आ रहे हैं लेकिन राजनीति और परिवारवाद एक-दूसरे के पूरक हैं और हर नेता-सांसद कुर्सी से हटने से पहले अपने बेटे-बेटियों और नाते-रिश्तेदारों के लिए जुगाड़ करने का कोई मौका नहीं चूकता है। बेशक, परिवारवाद से कोई दल अछूता नहीं है और सभी अपनी-अपनी रोटियां सेक रहे हैं।

 

  लेकिन जब यही परिवारवाद खेलों में घुसपैठ करता है तो परिणाम राजनीति से भयंकर होते हैं। कारण, नेता का बेटा नेता  बन जाता है। वह झूठ-सच और धोखाधड़ी से बाप-भाई के पदचिन्हों पर चलना सीख ही जाता है। लेकिन खेलों में परिवारवाद तब ही सफल रहता है जब खिलाड़ी अपने पिता और भाई की विरासत को बेटे आगे बढ़ाते हैं। मसलन, लाला अमरनाथ के बेटे मोहिंदर और सुरेंदर अमरनाथ ने अपने पिता का नाम रोशन करने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी। हॉकी के सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद के बेटे अशोक ध्यानचंद ने अपने पिता को निराश नहीं किया। इसी प्रकार कई अन्य हॉकी ओलम्पियनों के बेटे देश के लिए खेले। महान एथलीट मिल्खा सिंह के बेटे जीव मिल्खा ने गोल्फ में खूब नाम कमाया। अनेकों मुक्केबाजों और पहलवानों के बेटे-बेटियों ने भी अपने महान परिवार की विरासत को आगे बढ़ाया।

   हालांकि देश में पिता की तरह प्रतिभावान और सर्वगुण संपन्न खिलाड़ियों की संख्या ज्यादा नहीं है लेकिन पिछले कुछ सालों में एक अलग तरह का परिवारवाद भारतीय खेलों को बर्बाद करने पर तुला है। हॉकी, फुटबॉल, कुश्ती, बैडमिंटन, जूडो, कराटे, एथलेटिक्स, क्रिकेट और तमाम खेलों में परिवारवाद खेलों की जड़ों में तेजाब डालने का काम कर रहा है। राष्ट्रीय खेल संघों और राज्य इकाइयों में ऐसे अवसरवादी घुसपैठ कर चुके है, जिन्होंने शायद ही कोई खेल खेला हो।

हरियाणा, दिल्ली, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, पंजाब, छत्तीसगढ़, हिमाचल, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और तमाम राज्यों में विभिन्न खेल संघों की कार्यसमिति में उन लोगों की भरमार है, जो कि खेल का ज्ञान नहीं रखते हैं लेकिन कोच और चयनकर्ता बन कर अपने अनफिट और नालायक बेटे-बेटियों को राज्य और राष्ट्रीय टीम का हिस्सा बनाने पर तुले हैं। लगभग सभी खेलों में इस प्रकार का फर्जीवाड़ा चल रहा है। स्कूल, कॉलेज और विभिन्न आयु वर्गों की टीमों में जुगाड़ू और मौकापरस्त अपने और अपनों को तो बढ़ावा दे रहे हैं लेकिन उन प्रतिभाओं का अहित कर रहे हैं, जो कि फिट है, दिन-रात मेहनत कर रहे हैं लेकिन प्रतिभावान होने के बावजूद इसलिए कुचले जा रहे हैं क्योंकि उनका कोई माई-बाप नहीं। हैरानी वाली बात यह है कि जुगाड़ुओं के नालायक और थुलथुले बेटे गरीब और योग्य प्रतिभाओं का मजाक उड़ा रहे हैं। क्या देश की सरकार इस प्रकार के घृणित परिवारवाद की तरफ भी ध्यान देगी?

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