Ashok Dhyanchand The only Indian player to earn name and honor

अशोक ध्यानचंद: महान पिता की तरह नाम सम्मान कमाने वाले अकेले भारतीय खिलाड़ी

क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान

(जन्मदिन पर विशेष)

यह जरूरी नहीं कि यशस्वी और चैंपियन माता पिता के पुत्र-पुत्रियां भी उनकी तरह प्रतिभावान हों। यह भी देखा गया है कि बड़े नाम वाले पिता की संतानें अपने पिता की चमक दमक के नीचे दब कर रह जाते हैं । मसलन विजय अमृतराज, सुनील गावस्कर, मिल्खा सिंह आदि के बेटे अपने पिता की यश कीर्ति के सामने हल्के नजर आते हैं। बहुत कम उदाहरण ऐसे होते हैं जबकि पिता की तरह उसकी संतानें भी नाम सम्मान कमाती हैं।

भारतीय खेल इतिहास पर सरसरी नजर डालें तो अशोक ध्यान चंद ही ऐसे बड़े खिलाड़ी हुए हैं , जिसने अपने पिता की तरह देश के लिए सम्मान अर्जित किया है। पिता ने तीन ओलंपिक खिताब जीतने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तो अशोक भारतीय हॉकी को विश्व विजेता बनाने वाली टीम के महानायक रहे।

उनका जन्म एक जून, 1950 में मेरठ में हुआ था। वह 70 के हो गए हैं लेकिन आज भी पूरी तरह फिट, हिट और जिंदा दिल हैं। मैदान में पचास साल पहले वाली अकड़ -धकड़, स्फूर्ति और मैदान के बाहर का उनका शायराना अंदाज जस का तस बरकरार है। भाई को ढेर सारी बधाई, शुभकामना। उन पर प्रकाशित मेरा एक लेख मूल चूल बदलाव के साथ समर्पित है।

“पिछले कुछ सालों में जहां एक ओर भारतीय हॉकी का पतन हुआ है तो दूसरी तरफ कुछ खेलों में जीते ओलंपिक पदकों ने खिलाड़ियों के वारे न्यारे कर दिए। एक पदक ने उन्हें करोड़ों का मालिक बना दिया।

कुछ खिलाड़ी तो ओलंपिक में चौथा स्थान पाने पर ही करोड़ों के हकदार बने। उन्हें खेल रत्न, पद्मश्री, पद्म भूषण तक बांट दिए गए। लेकिन कई हॉकी ओलंपियन ऐसे भी हैं जिन्हें बड़े खेल अवार्ड और पद्म पुरस्कार आज तक नहीं मिल पाए। ऐसे ही एक उपेक्षित खिलाड़ी हैं अशोक कुमार ध्यान चंद।

बेशक, मेजर ध्यानचंद विश्व हॉकी में सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी थे। यह भी सच हैकि उनके सुपुत्र अशोक कुमार भी अपने यशस्वी पिता की तरह खेल कौशल के धनी थे। भले ही पिता की तरह पुत्र ने कोई ओलंपिक स्वर्ण नहीं जीता लेकिन अशोक उस भारतीय टीम के श्रेष्ठ खिलाड़ी थे जिसने पहली और अब तक की एकमात्र विश्व कप ख़िताबी जीत दर्ज कर देश की हॉकी का गौरव बढ़ाया था। अशोक उन भारतीय टीमों का हिस्सा भी रहे, जिनके पास एशियाई खेलों और ओलंपिक के पदक हैं लेकिन उन्हें पद्मश्री सम्मान के काबिल नहीं समझा गया।

गूंगी बहरी सरकारें:

परगट सिंह, धनराज, मुकेश, दिलीप टिर्की, एग्नेस टिर्की, जफर इकबाल, सरदार सिंह और श्रीजेश को पद्मश्री मिल गई, जिनके नाम ओलंपिक या विश्व कप जैसे आयोजनों में जीता कोई पदक नहीं है। यह सही है कि ये सभी खिलाड़ी बड़े से बड़े सम्मान के हकदार हैं लेकिन अशोक और उनके जैसे विश्व विजेताओं ने क्या अपराध किया है कि उन्हें इस काबिल नहीं समझा गया?

महान पिता का पुत्र होना गर्व की बात है लेकिन जब बेटा पिता जैसा चमत्कारी खिलाड़ी हो तो उसे सम्मान देने में कंजूसी किस लिए? अशोक ने हमेशा अपना श्रेष्ठ दिया फिर चाहे देश के लिए खेल रहे हों या अपने विभाग इंडियन एयर लाइन्स के लिए, उनके खेल को हॉकी प्रेमियों ने जम कर सराहा।

ध्यानचंद गोल जमाने में माहिर खिलाड़ी थे तो अशोक के पास भी पिता जैसी स्किल थी। ख़ासकर, उनकी ड्रिब्बलिंग का हर कोई दीवाना था। पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया, हॉलैंड, जर्मनी, इंग्लैंड आदि देशों के रक्षकों को उन्होने जमकर नचाया और ज़रूरत पड़ने पर दर्शनीय गोल भी जमाए। लेकिन वह उस दौर के कलाकार थे जब भारतीय हॉकी अपने शिखर से तेज़ी से नीचे रपट रही थी| नतीजन 1972 और 1976 के ओलंपिक खेलों में देश को खोया सम्मान नहीं मिल पाया।

पिता और पुत्र की अनदेखी:

अपने समकालीन खिलाड़ियों अजितपाल, असलम शेर ख़ान, सुरजीत सिंह, गोविंदा, फ़िलिप्स, माइकल किंडो के बीच अशोक बड़ा नाम रहे। लेकिन हैरानी वाली बात यह है कि उन्हें इस देश की सरकारों ने कभी भी पद्मश्री के काबिल नहीं समझा। देर से ही सही लेकिन अब कुछ कुछ समझ आ रहा है कि आख़िर क्यों हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न नहीं मिल पाया।

अशोक कुमार से जब कभी पूछा जाता है कि उन्होंने पद्म श्री के लिए आवेदन क्यों नहीं किया? उनका जवाब होता है, “लानत है ऐसी व्यवस्था पर जिसमें सम्मान भीख में मांगना पड़े। लानत है ऐसे खेलने पर। जिन लोगों ने ध्यानचंद जी के योगदान को नहीं समझा उनके सामने गिड़गिड़ाने से अच्छा है चुप रहना।”

उन्होने कहा, ‘आपको बता दूं कि मैं अपने पिता की तरह देशभक्त और अनुशासित खिलाड़ी रहा हूँ। कोई अपराध नहीं किया और ना ही मैदान और मैदान के बाहर किसी विवाद से जुड़ा हूँ। हाँ, मेरी ग़लती यह है कि मैने कभी पद्मश्री के लिए आवेदन नहीं किया।

तीन विश्व कप खेले और क्रमशः ब्रांज, सिल्वर और गोल्ड जीते। म्यूनिख ओलंपिक में पदक नहीं जीत पाए लेकिन तीन एशियाई खेलों में तीन सिल्वर मेडल मेरे खाते में हैं। इतना कुछ पाने के बाद भी मैं पद्मश्री माँगने से डरता हूँ। कारण यदि माँगने पर भी सम्मान नहीं मिला तो मैं सह नहीं पाऊंगा।

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