Li Ning the alternative of Shiv Naresh Nationalism and self-reliance

ली -निंग का विकल्प शिव नरेश तो नहीं? राष्ट्रवाद और आत्मनिर्भता भी कोई चीज है!

क्लीन बोल्ड/राजेंद्र सजवान

वाह रे मेरे भारत महान! एक तरफ तो अपने मक्कार पडोसी को ड्रैगन और हत्यारा कहता है तो दूसरी तरफ देश में ओलंपिक खेलों का कारोबार करने वाली भारतीय ओलंपिक समिति(आईओए) ने चीन की खेल सामानों की विक्री और वितरण करने वाली कंपनी ‘ली-निंग’ को टोक्यो ओलंपिक में भाग लेने वाले 100 सदस्यीय दल का आधिकारिक स्पांसर घोषित किया है।

यह कंपनी भारतीय दल के टिकट, पोशाक और अन्य खर्च उठाएगी। पता नहीं आईओए में अंदर खाते क्या चल रहा है लेकिन ली निंग को लेकर अच्छा खासा विवाद खड़ा हो गया है। इस समझौते को लेकर अलग अलग प्रतिक्रिया मिल रही हैं।

भारतीय ओलंपिक समिति के एक अधिकारी के अनुसार महामारी के दौर में यदि ली- निंग ऑफिसियल स्पांसर के रूप में सामने आया है तो बुराई क्या है? यह चीनी कंपनी 2018 से आईओए के साथ जुड़ी है और पहले भी कई भारतीय खिलाड़ियों को मदद करती आ रही है।

अब चूंकि समय कम है, इसलिए लीनिंग से करार तोड़ना ठीक नहीं होगा। एक अन्य अधिकारी की राय हट कर है। उसे नहीं लगता कि कहीं कोई विवाद है लेकिन कुछ लोग भारतीय कंपनी ‘शिव नरेश’ को विकल्प के रूप में देखना चाहते हैं और वही देशभक्ति का वास्ता दे रहे हैं।

यह न भूलें कि पिछले साल दो एशियायी देशों के बीच गतिरोध के चलते जमकर घमासान हुआ था। दोनों तरफ के सैनिकों ने जान गंवाई। हजारों भारतीयों ने अपने स्मार्ट फोन और टीवी सेट तोड़ डाले थे। तब ली-निंग केबारे में पूछे गए एक सवाल के जवाब में आईओए महासचिव राजीव मेहता ने कहा था कि चीनी कंपनी के साथ हुए समझौते की फिर से समीक्षा करेंगे, क्योंकि देश पहले है।

चीन के साथ सीमा विवाद के चलते भारत सरकार ने कई चीनी कंपनियों को बेदखल किया, जिनमें कई इंटरनेट कंपनियां भी शामिल हैं। यह भी सही है कि देश के मान सम्मान और स्वाभिमान के लिए यह कदम काबिले तारीफ है पर आईओए ली- निंग जैसे स्पांसर को क्यों खोना चाहेगा? उसके लिए इतने कम समय में दूसरा विकल्प खोजना आसान भी नहीं है। लेकिन कुछ लोग सरकार से यह भी पूछ रहे हैं कि कहीं खाने और दिखाने के दांतों में फर्क तो नहीं है?

सूत्रों से यह भी पता चला है कि आईओए और सरकार के बीच पहले से ही कुछ कारणों से तनातनी चल रही है। बड़ा कारण यह है कि सरकार ने अधिकांश खेल संघों के कार्यालयों को दर बदर कर रखा है और उन पर मुकदमे ठोक दिए गए हैं।

सरकार कोई भी रही हो लेकिन 2007-08 में राजधानी के नेहरू स्टेडियम, ध्यान चंद नेशनल स्टेडियम और अन्य स्टेडियमों में स्थित विभिन्न खेल संघों के कार्यालय इस शर्त पर खाली करवाए गए थे कि सरकार उनका नवीनीकरण कर सभी कार्यालयों को फिर से बहाल कर देगी। लेकिन 12 साल बाद भी तमाम खेल संघ मोटे किराये पर अपने कार्यालयों को चलाने को मजबूर हैं।

ऊपर से उन्हें कोर्ट कचहरियों के चक्कर लगाने पर विवश किया जा रहा है। ऐसे में उन्हें ली- निंग जैसे स्पांसरों कि सख्त जरूरत है। लेकिन पूछने वाले यह भी पूछ रहे हैं कि फिर हमारे आत्मनिर्भर भारत और राष्ट्रवाद जैसे नारों का क्या हुआ? क्या अब हिंदी-चीनी भाई भाई हो गए हैं?

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