Numbiyar's stature joking with Guru Shrestha is taller than Padmashri

गुरु श्रेष्ठ के साथ भद्दा मज़ाक नांबियार का कद पद्मश्री से ऊंचा!

क्लीन बोल्ड/राजेंद्र सजवान

जिस देश में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश सा दर्ज़ा प्राप्त हो वहाँ सचमुच गुरु को कैसा आदर दिया जाता है इसका ताज़ा उदाहरण पीटी उषा के गुरु ओएम नांबियार हैं,जिन्हें सरकार ने पद्मश्री देने का फ़ैसला किया है। बेशक, सरकार ने स्वागत योग्य काम किया है। लेकिन सवाल यह पैदा होता है कि उन्हें यह सम्मान इतनी देर से क्यों दिया गया है? इस बारे में खुद नांबियार और उनकी शिष्या उषा ने भी हैरानी व्यक्त की है और कहा है कि देर से ही सही याद तो आई।

सरकार किसी की भी रही हो जिस किसी ने उषा के कोच को सम्मान देने में देर की है उनका अपराध क्षमा करने लायक नहीं है। क्या देश की सरकारों और खेल मंत्रालय को पता नहीं कि नांबियार किस दर्जे के कोच थे और कैसे उनकी शिक्षा दीक्षा से उषा ने दुनियाभर में भारत का नाम रोशन किया। लेकिन जिस देश में राष्ट्रीय सम्मान की खरीद फ़रोख़्त होती हो, चेहरा देख कर टीका लगाया जाता हो और जहाँ फर्जी कोचों और खिलाड़ियों को खेल अवार्ड बांटे जाते हों, वहाँ कुछ भी हो सकता है।

नांबियार का कुसूर यह था कि उन्होने अपने लिए कभी भी कुछ नहीं माँगा। उषा जैसा हीरा तैयार कर यह कारीगर ना जाने कहाँ खो गया था। अब सरकार को उनकी याद आई है लेकिन खेल मंत्रालय, भारतीय एथलेटिक फ़ेडेरेशन और अन्य ज़िम्मेदार लोग कहां खो गए थे? सही मायने में सरकार ने बुझी चिंगारी को भड़काया है। पद्मश्री अब तक नहीं दी गई तो किसी ने आवाज़ भी नहीं उठाई थी। अब खुद नांबियार और उषा कह रहे हैं कि यह सम्मान 35 साल पहले दे दिया जाना चाहिए था।

कौन नहीं जानता कि पीटी उषा के कारण अनेक अवसरों पर भारत की खेल प्रतिष्ठा बच पाई। उसके जीते गए पदकों ने ना सिर्फ़ देशवासियों के दिल जीते अपितु फिसड्डी भारतीय एथलेटिक की लाज़ भी बचाई। तो क्या एथलेटिक फ़ेडेरेशन को नहीं चाहिए था कि बार बार और लगातार उसके कोच को बड़े से बड़ा सम्मान दिलाने की सिफारिश की जाती! भारतीय ओलंपिक संघ और खेल मंत्रालय ने भी इस बारे में शायद ही कभी कोई माँग की हो।

भारत की उड़न परी को 1985 में पद्मश्री मिली जबकि कोच को 35 साल तक इंतजार करना पड़ा। आज नांबियार 89 साल के हैं और जीते जी वह सम्मान ले पाएँगे, जोकि पूरी तरह राजनीति के खिलाड़ियों द्वारा तय किया जाता है और रेबड़ियों की तरह बाँटा जाता है। यदि ऐसा नहीं होता तो नांबियार को उषा के साथ ही पद्मश्री मिल जाना चाहिए था। भले ही उन्हें उस साल द्रोणाचार्य मिला। लेकिन जिस व्यवस्था में राष्ट्रीय हीरो ध्यानचन्द की अनदेखी कर एक क्रिकेटर को भारत रत्न बना दिया जाता है, जहाँ खेल की राजनीति करने वाले पद्मभूषण से सम्मानित किए जाते हों, वहाँ कुछ भी हो सकता है।

देश जानता है कि1984 के लासएंजेल्स खेलों में 400 मीटर बाधा दौड़ में उषा मामूली अंतर से कांस्य पदक से चूक गई थीं। लेकिन एशियाई खेलों और एशियन चैंपियनशिप में उषा ने रिकार्डतोड़ प्रदर्शन कर देश को ढेरों पदक दिलाए। उनकी जीत में कोच नांबियार की भूमिका को समझा जा सकता है। शाइनी अब्राहिम और वंदना राव को भी उन्होने कोचिंग दी।

1985 की जकार्ता एशियन चैंपियनशिप में जीते पदकों ने उषा को एशियाई सुपर वुमन बनाया। पाँच स्वर्ण और एक कांस्य सहित जीते छह पदक उनका रिकार्ड है। अगले साल स्योल एशियाड में उषा ने एशियाई रिकार्ड के साथ चार स्वर्ण जीत कर देश का नाम रोशन किया लेकिन उनके कोच को लगातार भुलाया जाता रहा। नांबियार 1977 से 1990 तक उनके कोच रहे।

खेल समीक्षकों और जानकारों की राय में भले ही उषा ओलंपिक पदक नहीं जीत पाईं लेकिन उनके पदक इसलिए ज़्यादा सम्मान के हकदार हैं क्योंकि एथलेटिक जैसे खेल में कामयाबी हासिल करना कहीं ज़्यादा मुश्किल है। कुछ खेल विशेषज्ञों की राय में उषा भारत की सर्वकलीन श्रेष्ठ खिलाड़ी हैं और नांबियार गुरु हनुमान और सचिन के कोच आचरेकर के समकक्ष आँके जा सकते हैं और कम से कम पद्मविभूषण के हकदार बनते हैं।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *