Tokyo Olympics Neeraj Chopra wins gold medal

तो फिर ओलंम्पिक खेल क्रिकेट से जलते-सड़ते क्यों हैं?

क्लीन बोल्ड /राजेंद्र सजवान

टोक्यो ओलंम्पिक में जैसे ही हमारे और आप सभी के लाडले नीरज चोपड़ा के स्वर्ण पदक जीतने की आधिकारिक घोषणा हुई तो माहौल होली दीपावली जैसा हो गया। देश विदेश की हवाओं में, “जहां डाल डाल पर सोने की चिड़िया..”, “सारे जहां से अच्छा”, ” ऐ वतन ऐ वतन”, हम होंगे कामयाब”, चक दे इंडिया” और देश भक्ति के अनेकों फिल्मी गाने गूंज उठे।

तारीफ की बात यह है कि देश भक्ति की ये आवाजें दिल्ली, मुम्बई, अहमदाबाद, कोलकत्ता, बंगलोर, चेन्नई, नागपुर और तमाम क्रिकेट कलबों से भी आ रही थीं। इंग्लैंड में खेल रही टीम इंडिया का हर खिलाड़ी, अधिकारी, कमेंटेटर और तमाम सपोर्ट स्टाफ भी नीरज की उपलब्धि पर गौरवान्वित था और खुल कर जश्न मना रहा था।

भारत और दुनिया के महानतम बल्लेबाज सुनील गावस्कर ने नीरज की कामयाबी का जश्न , “मेरे देश की धरती सोना उगले…”, गा कर मनाया। जैसे ही नीरज ने सोना जीता, देश के साथ हमारे तमाम क्रिकेटर ऐसे झूम रहे थे, जैसे गोल्ड उन्होंने जीता हो। शायद पहली बार लगा कि भारत एक है और यह देश किसी भी खेल के चैंपियन खिलाड़ी को बराबर सम्मान देने के लिए हमेशा तत्पर रहता है।

क्रिकेट का खाते, गुर्राते हैं:

यह बात आज तक समझ नहीं आई कि बाकी खेल क्रिकेट से जलते सड़ते क्यों हैं? क्यों हमारे ओलंम्पिक खेलों के खेल प्रशासक, अधिकारी, खिलाड़ी और खेल प्रेमी क्रिकेट को बुरा भला कहते है? उनके मुख से अक्सर सुनने को मिलता है कि देश का मीडिया क्रिकेट के हाथों बिका हुआ है। सच तो यह है कि कई ओलंम्पिक खेलों को क्रिकेट की मदद मिल रही है।

भारतीय ओलंम्पिक समिति मानती है कि अनेको बार भारतीय क्रिकेट बोर्ड से आर्थिक मदद मिलती रही है। टोक्यो ओलंम्पिक गए भारतीय दाल का कुछ खर्च बीसीसीआई ने उठाया है। इतना ही नहीं क्रिकेट बोर्ड ने गोल्ड जीतने पर नीरज को एक करोड़ देने का एलान कर दिया।

सिल्वर जितने वाली चानू और दहिया को 50-50 लाख तथा ब्रॉन्ज जीतने पर सिंधु, लवलीना को 25-25 लाख और पुरुष हॉकी टीम को 1.25 करोड़ दिए जाएंगे। तो फिर क्रिकेट को गाली क्यों? इतना ही नहीं कई खेल ऐसे हैं जिन्हें हमारे स्टार और धनाढ्य क्रिकेटर जब तब मदद करते हैं और किसी को कानों कान खबर तक नहीं होती।

क्रिकेट का अपना साम्राज्य:

‘खुदी को कर बुलंद’, यह कहावत तो आपने भी सुनी होगी। लाख कोसने के बाद आम खेल प्रेमी और खिलाड़ी ने यह मान लिया है कि क्रिकेट जहां है , अपनी मेहनत और दृढ़ निश्चय से पहुंचा है। उसे जगमोहन डालमिया जैसी दूरदृष्टि वाले कर्मठ लोगों ने सजाया संवारा है। दूसरी तरफ आम भारतीय खेल फेडरेशनों में ज्यादातर अवसरवादी और धूर्त किस्म के लोग बैठे हैं।

उनका काम सिर्फ कुर्सी से चिपके रहना और खिलाड़ियों की राह में रोड़े अटकाना रहा है। यही कारण है कि हमें बिंद्रा और चोपड़ा के गोल्ड के लिए सौ साल तक इंतजार करना पड़ा। उनके जैसे चैंपियन तैयार करने के लिए भारतीय खेलों को ईमानदारी से आगे बढ़ना होगा। क्रिकेट से तुलना उनके लिए घातक रहेगी।

मीडिया को सीख:

देखने में आया है कि देश में मीडिया का एक ऐसा वर्ग भी है जोकि क्रिकेट को बुरा भला कहने का कोई मौका नहीं चूकता। मसलन हॉकी टीमों के शानदार प्रदर्शन को उन्होंने बहुत जल्दी क्रिकेट के लिए खतरा बता दिया।

कुछ एक तो इस कदर उतावले हैं कि यहां तक कह रहे हैं कि अब गली कूचों से बल्ले गायब हो जाएंगे और हर तरफ हॉकी नजर आएगी। शायद उन्हें नहीं पता कि भारतीय हॉकी महांठगिनी है। क्रिकेट ने 1983 का वर्ल्ड कप जीत कर मुड़ कर नहीं देखा जबकि हॉकी 1975 में जग जीतने के बाद पिछड़ती चली गई।

धीरज धरें:

कुल मिलाकर नीरज ने भारत वासियों को जो खुशी दी है, उसे धीरज के साथ सजाने संवारने की जरूरत है। क्रिकेट और बाकी खेलों के बीच कोई मुकाबला नहीं। जरूरत इस बात की है कि बाकी खेल खुद को क्रिकेट की तरह स्वावलंबी बनाएं और सरकार का मुंह ताकना कम कर दें। वैसे भी ओलंम्पिक में जीते पदकों Cमें सरकार की मेहरबानी ज्यादा नहीं है। ज्यादातर खिलाड़ी अपनी और मां बाप की मेहनत, तपस्या और त्याग से चैंपियन बने हैं।

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