Trafficking in jobs, playing with the sports players emotional

नौकरी का झांसा, खिलाड़ियों की भावना से खिलवाड़!

क्लीन बोल्ड/राजेंद्र सजवान

खेल मंत्रालय ने सरकारी नौकरियों में 21 नये खेलों को शामिल किया गया है, जिनमें बेसबाल, बॉडी बिल्डिंग, साइकल पोलो, डेफ स्पोर्ट्स,फेंसिंग, सेपक तकरा, मलखंब, कूडो, मोटर स्पोर्ट्स, नेट बाल, पैरा स्पोर्ट्स, पेनसाक सिलट, शूटिंग बाल, ट्रायथलॅन, रोल बाल, रग्बी, सॉफ्ट टेनिस, टेन पिन बोलिंग, रस्साकशी, वुशू, और टेनिस बाल शामिल हैं।

भले ही कुछ खिलाड़ी सरकार की दरियादिली को सराह रहे हैं लेकिन ज्यादातर जानते हैं कि इस प्रकार की घोषणाएं सिर्फ भावनाओं से खिलवाड़ भर हैं।

यह सही है कि नौकरी अपने देश की सबसे बड़ी समस्या है। ख़ासकर, महामारी ने बेरोज़गारों की कतार को सुरसा की आँत की तरह बहुत लंबा कर दिया है। जहाँ देखो जिधर देखो बेरोज़गार अपनी बारी की इंतजार में हैं। सरकारी नौकरियाँ नहीं के बराबर रह गई हैं।

ऐसे में छोटी बड़ी कंपनियों के भरोसे ज़्यादातर युवाओं का घर परिवार चल रहा है। सरकारी नौकरियों का आलम यह है कि उनकी चाह में लाखों करोड़ों युवा ना घर के रहे ना घाट के। उनका जीवन तानों, दुत्कार और अभाव में चल रहा है। सरकार कहती है कि नौकरी नहीं है। तो फिर इन 21 नये खेलों के लिए नौकरी का इंतज़ाम कहाँ से हो पाएगा?

हालाँकि ग्रुप ‘सी’ की नौकरी के लिए शामिल किए गए खेलों में से कुछ एक को पहले भी सरकारी नौकरी पाने वाली कैटेगरी में शामिल किया गया था और कुछ एक को नौकरी मिली भी है। लेकिन यह ना भूलें कि खेलों से नौकरी पाने का रास्ता निरंतर मुश्किल होता जा रहा है। नतीजन बेरोज़गार खिलाड़ियों की संख्या करोड़ पार कर चुकी है।

इस सच को झुठलाया नहीं जा सकता कि यदि किसी विभाग द्वारा खिलाड़ियों की भर्ती के लिए आवेदन माँगे जाते हैं तो पहली कतार में निश्चित रूप से ओलापिक खेल होंगे, जिनकी संख्या नये शामिल खेलों से दुगुनी हो सकती है।

बहुत से पूर्व खिलाड़ियों ने बातचीत के चलते अपनी व्यथा सुनाई और कहा कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश के लिए खेलने के बावजूद उन्हें किसी काबिल नहीं समझा जाता। जब कहीं कोई नौकरी नहीं मिली तो दिहाड़ी मज़दूरी करने के लिए विवश हुए।

ऐसे खिलाड़ी सरकार से यह वादा चाहते हैं कि जो कोई खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का प्रतिनिधित्व करे उसकी रोज़ी रोटी का जुगाड़ तय होना चाहिए। लेकिन ऐसा इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि नौकरियाँ हैं ही नहीं।

1982 के दिल्ली एशियाड को यादगार बनाने के लिए सरकार ने सरकारी नौकरियों में पाँच फीसदी खेल कोटा तय किया था, जोकि अगले दस साल तक प्रभावी रहा और फिर धीरे धीरे खेल कोटा कमतर होता चला गया।

हज़ारों खिलाड़ियों को नौकरी मिली और खेलों के प्रति आम देशवासी का विश्वास और आकर्षण बढ़ा। लेकिन आज हालात पूरी तरह बिगड़ चुके हैं। बैक, बीमा कंपनियों, तेल कंपनियों, सीमा बल, पुलिस और सेना में खिलाड़ियों की भर्ती यदा कदा ही हो पाती है।

हॉकी, फुटबाल, क्रिकेट, टेनिस, बैडमिंटन, कुश्ती, मुक्केबाज़ी, एथलेटिक, जूडो, तैराकी, बास्केटबाल, कबड्डी जैसे लोकप्रिय खेलों के लिए सरकारी नौकरियाँ उंट के मुँह मे जीरा समान है।

तो फिर नये और कम लोकप्रिय खेलों से जुड़े खिलाड़ी किस भरोसे पर खेलना जारी रख सकते हैं? बेशक, फिटनेस बनाए रखने के लिएए कुछ ना कुछ ज़रूर खेलें। लेकिन नौकरी की कोई गारंटी नहीं मिलने वाली।

सीधा सा मतलब है कि सरकार ने हालात का जायजा लिए बिना ही नौकरी का झांसा दिया है।

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