Now the heart of Delhi does not beat for hockey

अब हॉकी के लिए नहीं धड़कता दिल्ली का दिल।

क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान

कुछ साल पहले तक दिल्ली के शिवाजी स्टेडियम में हॉकी के मेले लगते थे। देश के बड़े छोटे खिलाड़ी अपने जौहर दिखाने के लिए जुटते थे । लेकिन अब दिल्ली के शिवाजी और ध्यान चंद नेशनल स्टेडियम वीरान पड़े हैं। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि भारतीय हॉकी के ठेकेदारों को दिल्ली की हॉकी से चिढ़ है।

दूसरा बड़ा कारण यह बताया जाता है कि साल दर साल, ओलंपिक दर ओलंपिक भारतीय खिलाड़ियों और राष्ट्रीय टीम का प्रदर्शन गिरता चला गया और हॉकी के दीवानों ने अपने प्रिय खेल से नाता तोड़ लिया। एक अन्य कारण यह भी हो सकता है कि दिल्ली में खेल को संचालित करने वाली स्थानीय इकाई में पहले से काबिल लोग नहीं रहे।

कभी हॉकी का दिल थी दिल्ली:

ऐसा नहीं है कि सिर्फ दिल्ली से ही हॉकी की विदाई हुई है। दरअसल, पूरे देश में अपने तथाकथित राष्ट्रीय खेल को लेकर हताशा और निराशा का माहौल है। ऐसा इसलिए चूंकि दिल्ली, लखनऊ, जालंधर, मुम्बई, बंगलुरू और कई अन्य शहरों में आयोजित होने वाले टूर्नामेंट या तो दम तोड़ चुके हैं या जैसे तैसे चल रहे हैं।

ले देकर उड़ीसा में अधिकांश आयोजन हो रहे हैं, जिसके लिए राज्य सरकार का हॉकी प्रेम सराहनीय कहा जा सकता हैं। लेकिन हॉकी का देश की राजधानी से सिरे से गायब होना शुभ संकेत कदापि नहीं है। जो दिल्ली कभी हॉकी का दिल थी, आज यहां हॉकी का नामलेवा भी नहीं बचा।

पहचान खोती नेहरू हॉकी:

दिल्ली में हॉकी का मतलब नेहरू हॉकी सोसाइटी द्वारा आयोजित किए जाने वाले पांच राष्ट्रीय आयोजन माना जाता रहा है।

नेहरू हॉकी देश विदेश के ख़िलाड़ियों के लिए एक शानदार प्लेटफार्म रहा है, जिसमें पाकिस्तान और अन्य देशों के खिलाड़ी बड़ी तादात में भाग लेने आते थे। बाद के सालों में नेहरू सोसाइटी ने स्कूल और कॉलेज स्तर पर बालकों और बालिकाओं के आयोजन शुरू किए,साथ ही कालेज हॉकी भी चल निकली।

इन आयोजनों में भाग लेने वाले अनेक ख़िलाड़ी राष्ट्रीय टीमों का हिस्सा बने। नब्बे के दशक तक नेहरू हॉकी की लोकप्रियता उफान पर रही लेकिन शिव कुमार वर्मा, केजी कक्कड़, ओलंपियन नंदी सिंह जैसे समर्पितों के निधन के बाद नेहरू हॉकी का आकर्षण फीका पड़ता चला गया। आज यह टूर्नामेंट बस खानापूरी कर रहा है। बाद में शुरू हुए लाल बहादुर शास्त्री हॉकी टूर्नामेंट ने हॉकी प्रेमियों को आकर्षित किया। लेकिन साल दर साल हॉकी के चाहने वाले घटते चले गए।

शर्मनाक हार:

सही मायने में 1982 के दिल्ली एशियाई खेलों के हॉकी फाइनल में भारत का पाकिस्तान के हाथों बुरी तरह परास्त होना। एक बड़ा आघात था। नेशनल स्टेडियम में खेले गए फाइनल में जब भारत 1-7 से परास्त हुआ तो हॉकी प्रेमियों में से बहुत से ने मैच देखने ही छोड़ दिए। उस शर्मनाक हार के सदमे के बाद कई हॉकी प्रेमी वापस नहीं लौटे। एक बार फिर एशिया कप के चलते भारतीय टीम को पाकिस्तान के हाथों परास्त होना पड़ा। इस बार मुकाबला शिवजी स्टेडिम में था।

सरकारी नाकारापन:

नई दिल्ली नगर पालिका परिषद और भारतीय खेल प्राधिकरण भले ही खेलों के हितैषी होने का दावा करें लेकिन इन दोनों इकाइयों ने दिल्ली की हॉकी को बर्बाद करने में बड़ी भूमिका निभाई है। पालिका ने शिवाजी स्टेडियम पर अपनी चौधराहट दिखाई तो नेशनल ध्यानचंद स्टेडियम पर सरकारी दफ्तर खोल कर खिलाड़ियों का मार्ग अवरुद्ध किया गया। पिछले कई सालों से दोनों स्टेडियम खिलाड़ियों और खेल आयोजनों के लिए लगभग बंद पड़े हैं। खेल मंत्रालय, साई और हॉकी इंडिया चुपचाप तमाशा देख रहे हैं। यह नाकारापन नहीं तो और क्या कहें?

बेदम स्थानीय इकाई:

दिल्ली हॉकी एसोसिएशन या हॉकी दिल्ली की गंदी राजनीति भी खेल बिगाड़ने के लिए जिम्मेदार रही है। पूर्व अध्यक्ष इंद्र मोहन महाजन के निधन के बाद से दिल्ली की हॉकी में गिरावट का जो क्रम शुरू हुआ, सचिव स्वर्गीय चरणजीत रहेजा की लंबी बीमारी और तत्पश्चात उनके निधन तक जारी रहा। अपने दो काबिल अधिकारियों को खोने के सदमें से स्थानीय हॉकी पता नहीं कब तक उबर पाएगी।

हॉकी कल्चर नहीं बचा:

देखा जाए तो दिल्ली में खेल की बर्बादी का एक कारण स्कूल कालेजों में हॉकी के प्रति उदासीनता भी रही है। दूसरा बड़ा कारण यह रहा कि विभिन्न संस्थानों, बैंकों, बीमा कंपनियों और सरकारी विभागों ने खिलाड़ियों के लिए दरवाजे बंद कर दिए।

कभी स्थानीय हॉकी में एफ सीआई, स्टेट बैंक, बिजली बोर्ड, रेलवे, आडिट, एयर लाइन्स, पुलिस आदि टीमों की तूती बोलती थी। आज खिलाड़ियों को नौकरी नहीं मिल रही तो फिर खेलने का क्या फायदा? एक और कारण यह भी है कि क्लब कल्चर पूरी तरह खत्म हो गया है। क्लब चलाना हाथी पालने जैसा है। तो फिर कोई जोखिम क्यों उठाए!

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