On the pretext of Tokyo Olympics, false claims and monkey distribution game of crores

ओलंपिक के बहाने, झूठे दावों और करोड़ों की बंदर बांट का खेल!

क्लीन बोल्ड/राजेंद्र सजवान

टोक्यो ओलंपिक के लिए चंद सप्ताह बचे हैं। जापान ने महामारी से निपटने के साथ साथ खेलों के शानदार आयोजन के लिए कमर कस ली है। इधर भारत में में भी माहौल खुशगंवार है। सरकार, खेल मंत्रालय, भारतीय ओलंपिक समिति और तमाम खेल संघों में भी हलचल तेज हो गई है। ओलंपिक में कितने पदक जीतेंगे, यह तो वक्त ही बताएगा, खिलाड़ियों के प्रदर्शन से तय होगा लेकिन पदक के दावों का खेल बहुत पहले शुरू हो चुका है। इसके साथ ही पदक विजेताओं को नकद पुरस्कार राशि देने की घोषणाएं भी पढ़ने सुनने को मिल रही हैं।

बेशक, जो खिलाड़ी देश के लिए पदक जीतेगा, वह बड़े से बड़े सम्मान का हकदार बनगा। उसे वह सब कुछ मिलना चाहिए, जिसका वह हकदार है। लेकिन हमारे खेल आकाओं, नेताओं और वोटपरस्तों को उनकी याद ओलंपिक खेलों के चलते ही क्यों आती है? क्यों वे यकायक जाग उठते हैंऔर पदक विजेताओं को करोड़ों देने की घोषणाएं करने लगते हैं? उन्हें तब सुविधाएं क्यों नहीं मिल पातीं जब जीवन के सबसे कठिन दौर से गुजरते हैं?

हालांकि केंद्र सरकार द्वारा ओलंपिक, एशियाड, कामनवेल्थ खेलों के पदक विजेताओं को नकद पुरस्कार राशि दी जाती है लेकिन पिछले कुछ सालों से राज्य सरकारों ने भी अपने अपने खिलाड़ियों को सम्मान देने का जो सिलसिला शुरू किया है उस पर कुछ सवाल भी उठ रहे हैं।

कुछ सरकारें ओलंपिक स्वर्ण देने पर छह करोड़ दे रही हैं तो कुछ ने हटकर घोषणाएं की हैं। शर्मनाक बात यह है कि कई राज्य अपने चैंपियनों को औने पौने में टरका देते हैं। यह भेद भाव क्यों और पदक जीतने पर करोड़ों की बरसात किसलिए?

ज्यादातर पूर्व खिलाड़ी, ओलंपियन और खेल जानकार पदक जीतने पर पैसा देने की योजना को सही मानते हैं लेकिन साथ ही यह भी पूछते हैं कि ख़िलाड़ी को चैंपियन बनने से पहले तमाम सुविधाएँ क्यों नहीं दी जातीं? सरकारी खजाना लुटाने वाले पहले उसकी खबर क्यों नहीं लेते?

भारत के लिए ओलंपिक पदक जीतने वाले ज्यादातर खिलाड़ी कमजोर पृष्ठभूमि से आते हैं। माँ बाप की कड़ी तपस्या और समर्पण से उनका खेल जीवन आगे बढ़ता है। खाद खुराक के लिए उन्हें सरकारों का मुंह ताकना पड़ता है और प्रायः निराशा ही हाथ लगती है।

जब तक वे चैंपियन नहीं बन जाते कोई नेता, अभिनेता और उद्योगपति उनकी खबर नहीं लेते। तो फिर बड़ी कामयाबी के बाद स्टार खिलाड़ियों के तलवे क्यों चाटते हैं? इसलिए क्योंकि खिलाड़ियों को पैसा और मंच देकर उनके राजनीतिक स्वार्थ सधते हैं।

यह भी देखा गया है कि गरीबी में जीने वाले हमारे खिलाड़ी पैसा और पावर मिलने पर पगला जाते हैं। यह भूल जाते हैं कि जिस देश ने उन पर करोड़ों खर्च किए और काबिल बनाया, उसके भावी खिलाड़ियों के प्रति भी कोई कर्तव्य बनता है। उन्हें सिर चढ़ाना कदापि ठीक नहीं है। उन्हें पैसा और शोहरत चाहिए। कुछ के दिमाग किस कदर खराब हो जाते हैं, आप सब जानते हैं।

कोई राजनीति में कूद रहा है तो कोई सत्ता मिलने पर अकड़ जाता है। चूंकि देश में चुनाओं का दौर शुरू होने वाला है इसलिए ओलंपिक से पहले ही खिलाड़ियों को खुश कर अपनी राजनीति चमकाने का सिलसिला चल निकला है।

लेकिन बेहतर यह होगा कि हमारी सरकारें, धनाढ्य लोग एवम बड़ी कंपनियां खिलाड़ियों को ग्रासरूट स्तर से भाव दें, उनके परिवारों को सरंक्षण दें और उनके अंदर के चैंपियन को निखारने में मदद करें। ओलंपिक पदक विजेता सरकारों और नेताओं के मोहताज कदापि नहीं हो सकते।

2 thoughts on “ओलंपिक के बहाने, झूठे दावों और करोड़ों की बंदर बांट का खेल!”

  1. शायद आप TOP (Target Olympic Podiun) स्कीम को भूल गए जिसके अंतर्गत लाखो करोड़ो रूपये लंगड़े घोड़ो पर लुटाया जाता है और साथ ही 80/90 विदेशी प्रशिक्षकों पर करोड़ो रूपये खर्च किये जाते है और आप कहते है कि खिलाड़ियों को पहले कुछ नही मिलता।
    एक स्पेशल एरिया गेम्स स्कीम था जो प्रतिभा को पहले से पहचान कर उसे सभी सुविधा उपलब्ध कराता था जिसके अंतर्गत लिम्बा राम, डिनको सिंह, मैरीकॉम, इत्यादि देश का नाम रोशन किया मगर अफसोस वो स्कीम को सादरण स्कीम के साथ मिला दिया।

  2. Dr. Gurdeep Singh, D.Litt. President, Premier Academy of Sports Science and Physical Education(India).

    There is a long journey of struggle including advance training, competitive exposure and focused participation etc, based on professional and scientific approach, to be an elite athlete of high caliber. As a result, this process of converting quality potential into high performance leads to a huge expenditure of energy, finance, resources and time on the part of an athlete, which is beyond the capacity of talented sportsperson. Ideally, this is the period of 6-8 years, where an athlete badly needs full support from our sports system so as to perform well at global sporting events. Whenever a very few highly talented athletes established themselves at international level on their own risk and resources, then every Tom, Dick and Harry rushes to exploit the hard earned success of true champions for fulfillment of their vested interests, instead of extending a helping hand in their endless struggle-a test of fire that makes the fine steel to shine globally. Hence, the existing sports system in the country, is expected to adopt a professional approach in the process of talent search, advance training, international exposure, monitoring mechanism, meaningful partication and analytical evaluation of sporting performance of potential superior sportspersons.

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