Tokyo Paralympic 2020 players How did you get top even though not in 'TOPS'

वो जीते तो हुड़दंग और दिव्यांगों की जीत पर जैसे सांप सूंघ गया!

राजेंद्र सजवान/क्लीन बोल्ड

टोक्यो ओलम्पिक के पहले दिन जैसे ही मीरा बाई चानू ने भारत के पदकों का ख़ाता खोला तो पूरा देश झूम उठा था। उसी पल से चानू पर वाह वाही, पुरस्कारों और सम्मानों की बरसात शुरू हो गई। दिल्ली से मणिपुर तक सरकारी और गैर सरकारी तंत्र ने उस पर सब कुछ न्योछावर कर दिया। बाद में जो कुछ हुआ, सभी जानते हैं।

पदक आते रहे लाखों करोड़ों बरसते रहे। नीरज चोपड़ा के स्वर्ण पदक ने जैसे देश को नये सिरे से आज़ादी दिलाई। हर कोई नीरज को याद कर तिरंगा लहरा रहा था। सरकार, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और तमाम बड़े छोटे औद्योगिक घरानों ने शुभकामना दी और पूरे देश ने ऐसा जश्न मनाया जैसे पहले शायद ही कभी मनाया गया हो।

भारतीय दल रिकार्ड सात पदकों के साथ भारत लौटा था। लेकिन पैरालम्पिक खेलों में तमाम रिकार्ड तोड़ कर पाँच स्वर्ण के साथ 19 पदक जीतने वाले दिव्यागों की कामयाबी पर हम ऐसा पागलपन क्यों नहीं दिखा पाए?

यह सही है की देश के शीर्ष पदों पर बैठे नेता, सांसदों और उच्च अधिकारियों ने दिव्यंग चैम्पियनों को खूब मान सम्मान दिया। उन्हें बड़े बड़े आश्वासन दिए गए लेकिन सामान्य से लगभाग तिगुने पदक जीतने वाले खिलाड़ियों के प्रति यह आदर भाव सिर्फ़ और सिर्फ़ राजनीति ज़्यादा नज़र आती है।

एक तरफ तो सरकारें सामान्य और दिव्यांग खिलाड़ियों को एक तराजू से तोलने की बात करते हैं , उन्हें बराबर पुरस्कार राशि देने का दम भरते हैं तो धरातल पर कुछ और ही नज़र आता है। ऐसा क्यों है? क्यों दिव्यांग खिलाड़ी बेहतर करने के बावजूद उपेक्षित है?

स्वदेश वापसी पर कुछ दिव्यांग चैंपियनों और अन्य खिलाड़ियों ने उनके साथ हो रहे सौतेले व्यवहार के बारे में जो कुछ बताया उससे इतना तो साफ हो गया है कि हमारा दिव्यांग समाज आज भी अभाव और उपेक्षा का जीवन जी रहा है। उन्हें मदद का सिर्फ़ झूठा वादा किया जाता है और कोई भी समझने का प्रयास नहीं करता। जरा पहले दिव्यांग खिलाड़ियों की परेशानियों के बारे में जान लेते हैं।

उनकी सबसे बड़ी बाधा यह है कि ज़्यादातर को किसी अटेन्डेन्ट, व्हीलचेयर, छड़ी या अन्य किसी सहारे के ही खेल मैदान या कोर्ट तक पहुँचना संभव होता है। दूसरी परेशानी यह है कि कुछ एक बड़े शहरों को छोड़ उनके लिए पर्याप्त इन्फ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध नहीं है, जहाँ वे अपनी सुविधा और समय के अनुसार अभ्यास कर सकें।

उन्हें मीलों चल कर या यात्रा कर अभ्यास स्थल तक पहुँचना पड़ता है। सामान्य अधिकारी या तो उनके प्रति दिखावे की सहानुभूति का प्रदर्शन करते हैं या उनसे परहेज करते हैं। अफ़सोस की बात यह है कि उनके लिए ग्रास रुट स्तर से ही सुविधाओं का अभाव है।

जहाँ एक ओर सामान्य बच्चों को स्कूल और विश्वविद्यालय स्तर के बड़े बड़े खेल आयोजन होते हैं तो दिव्यागों को ऐसा माहौल नहीं मिल पाता और प्रतिभाएँ खिलने से पहले ही मुरझा जाती हैं। ज़्यादातर खिलाड़ियों के अनुसार सामान्य कोच, या अधिकारी उनकी मन: स्थिति को कम ही समझ पाते हैं। अच्छे और समझदार कोच बहुत कम हैं। यदि दिव्यांग कोच नियुक्त किए जाएँ तो बेहतर रहेगा।

अधिकांश दिव्यांग खिलाड़ी इसलिए भी नाराज़ हैं क्योंकि उन्हें बड़े स्तर पर पदक जीतने के बावजूद भी नौकरियाँ नहीं मिल पा रहीं। नतीजन वे खेल जारी नहीं रख पाते। घर-बाहर उन्हें ताने सुनने पड़ते हैं, जिससे उनकी मनः स्थिति पर बुरा असर पड़ता है। कुछ खिलाड़ियों के अनुसार पढ़ लिख कर उच्च पद पर आसीन अधिकारी खेल जारी रख सकते हैं लेकिन सिर्फ़ खेल को चुना तो जीवन अंधकारमय भी हो सकता है।

ज़्यादातर खिलाड़ियों के अनुसार उनका जीवन कदम कदम पर चुनौतियों से भरा है। चोट, दुर्घटना, फेल होने का डर और अभाव की जिंदगी से लड़ लड़ कर मज़बूत बन सकते हैं लेकिन जब कोई अधिकारी उनकी योग्यता को स्वीकार नहीं करता तो बड़ा सदमा लगता है।

कुछ एक ने तो यहाँ तक कहा कि कभी कभार तो दिव्यांग ही दिव्यांग के दुशमन नज़र आते हैं। अधिकांश ने सरकार और राज्य सरकारों से मांग की है कि उन्हें सामान्य खिलाड़ियों से कमतर ना आँका जाए। पुरस्कार राशि, साधन सुविधा, सम्मान भी बराबर होने चाहिए।

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