सब कुछ लुटा कर होश में आए तो क्या किया!

  • अफगानिस्तान के हाथों हुई पिटाई का दर्द महसूस करने वाले कुछ पूर्व खिलाड़ी नींद से जागने का नाटक तो कर रहे हैं लेकिन कोई भी विवादास्पद और बदनाम एआईएफएफ के विरुद्ध कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं रखता है
  • विदेशी कोचों पर लाखों-करोड़ों रुपये खर्च किए गए लेकिन हमारी फुटबॉल ने जैसे नहीं सुधरने की कसम खाई हुई है
  • सच तो यह है कि जब देश में फुटबॉल को संचालित करने वाली संस्था एआईएफएफ की नीयत में खोट है तो सुधार की उम्मीद भी नहीं की जा सकती है क्योंकि सालों से फेडरेशन भ्रष्ट लोगों द्वारा चलाई जा रही है
  • जब से चौबे साहब ने गद्दी संभाली है रोज ही कोई नया कांड सामने आ रहा है। अफसोस की बात यह है कि फेडरेशन के कर्ता-धर्ता गंदी राजनीति की उपज हैं और निजी स्वार्थों के लिए फुटबॉल की हवा निकाल रहे हैं
  • सवाल यह भी पूछा जाना चाहिए कि विदेशी कोचों पर करोड़ों रुपये क्यों खर्च किए जा रहे हैं? इस प्रक्रिया में खेल मंत्रालय और खेल प्राधिकरण और किसी अन्य एजेंसी की क्या भूमिका है?
  • अपने कोचों को क्यों भुला दिया गया है? यदि वे नालायक है तो उन्हें द्रोणाचार्य अवार्ड क्यों बांटे जा रहे हैं?

राजेंद्र सजवान

देर से ही सही पूर्व भारतीय फुटबॉलरों के मुंह पर लगे ताले खुलने लगे हैं। पांच दशकों तक जिनकी जुबान पर ताले लगे रहे और भारतीय फुटबॉल की बेहतरी के लिए जिनके दिल-दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था अब बेहोशी से बाहर निकल रहे हैं। अफगानिस्तान के हाथों हुई पिटाई का दर्द महसूस करने वाले कुछ पूर्व खिलाड़ी नींद से जागने का नाटक तो कर रहे हैं लेकिन कोई भी विवादास्पद और बदनाम ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन (एआईएफएफ) के विरुद्ध कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं रखता है। फिर भी यह संतोष की बात है कि कुछ पूर्व खिलाड़ी आगे आए हैं। शायद उनके अंदर का खिलाड़ी जाग गया है। समस्या ग्रस्त और फीफा रैंकिंग में बेहद पिछड़े अफगानिस्तान की दूसरे दर्जे की टीम से हारकर भारतीय फुटबॉल में चिल्ल पों मची हुई है। कोई कह रहा है कि कोच इगोर स्टीमैक को बाहर का रास्ता दिखाया जाए, तो कोई सुनील छेत्री से बस करने की गुहार लगा रहा है। कुछ लोग शोर मचा रहे हैं कि विदेशी कोच, बिल्कुल नहीं।

 

  बेशक, विदेशी कोच भारतीय फुटबॉल को सुधारने में नाकाम रहे हैं। उन पर लाखों-करोड़ों रुपये खर्च किए गए लेकिन हमारी फुटबॉल ने जैसे नहीं सुधरने की कसम खाई हुई है। सच तो यह है कि जब देश में फुटबॉल को संचालित करने वाली संस्था एआईएफएफ की नीयत में खोट है तो सुधार की उम्मीद भी नहीं की जा सकती है। सालों से फेडरेशन भ्रष्ट लोगों द्वारा चलाई जा रही है। जब से चौबे साहब ने गद्दी संभाली है रोज ही कोई नया कांड सामने आ रहा है। अफसोस की बात यह है कि फेडरेशन के कर्ता-धर्ता गंदी राजनीति की उपज हैं और निजी स्वार्थों के लिए फुटबॉल की हवा निकाल रहे हैं।

   सवाल सिर्फ अफगानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश जैसे कमजोर प्रतिद्वंद्वियों से हारने का नहीं है। सवाल यह भी पूछा जाना चाहिए कि विदेशी कोचों पर करोड़ों रुपये क्यों खर्च किए जा रहे हैं? इस प्रक्रिया में खेल मंत्रालय और खेल प्राधिकरण और किसी अन्य एजेंसी की क्या भूमिका है और अपने कोचों को क्यों भुला दिया गया है? यदि वे नालायक है तो उन्हें द्रोणाचार्य अवार्ड क्यों बांटे जा रहे हैं? हैरानी वाली बात यह है कि जो भी गोरा आता है, भारतीय खिलाड़ियों को छुपा रुस्तम बताता है लेकिन जब विदाई होती है तो यह लांछन लगाता है, “भारतीय फुटबॉल कभी नहीं सुधर सकती।”

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