Hero in the ranking and zero in the Olympics

रैंकिंग में हीरो और ओलंम्पिक में जीरो !

क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान

ओलंपिक पदक गँवाने या पदक पाने के बाद जब कोई ओलम्पियन पीछे मुड़ कर देखता है तब जाकर उसे पता चलता है कि ओलम्पिक खेल कितना बड़ा प्लेटफार्म हैं। लेकिन ज़रूरी यह है कि वह कितना गंभीर है।

हाल ही में कुछ ओलम्पिक पदक विजेताओं से उनके अनुभवों के बारे में पूछा गया तो विजेंद्र सिंह,अभिनव बिंद्रा, योगेश्वर दत्त, लिएंडर पेस, मीरा देवी चानू आदि ने माना कि ओलम्पिक का मनोवैज्ञानिक दबाव कुछ हट कर होता है।

अधिकांश के अनुसार ओलम्पिक में उतरने से पहले आप कितने बड़े खिलाड़ी हैं और आपकी रैंकिंग क्या है इस बात का नतीजे पर खास फ़र्क नहीं पड़ता। फ़र्क पड़ता है आपके आत्म विश्वास का और दबाव झेलने की क्षमता का।

देश के लिए पहला एकल स्वर्ण पदक जीतने वाले अभिनव बिंद्रा के अनुसार यदि आप दबाव में आ गए तो बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है, जैसा कि मेरे साथ कई बार हुआ। लेकिन यदि आप दबाव को सहजता से झेल कर अपने लक्ष्य की तरफ बढ़े तो कामयाबी मिलना तय है।

बिजेंद्र सिंह कहते हैं कि मैने दबाव को सहजता से लिया और फिर उसकी पकड़ से बाहर निकल कर पदक जीतने में सफल हुआ। लिएंडर पेस के अनुसार सामने वाले को देख कर डरने से आपके खेल पर असर पड़ना स्वाभाविक है।

ऐसा नहीं है कि चैम्पियनों की हर बात से सब सहमत हों लेकिन कुछ भारतीय खिलाड़ियों और टीमों के उदाहरण सामने हैं,जिनमें बड़ा उदाहरण हमारे निशानेबाज़, तीरन्दाज़, महिला पहलवान और पुरुष मुक्केबाज़ हैं, जोकि दुनियाभर में खुद के वर्ल्ड नंबर वन होने का ढोल पीट रहे थे।

लेकिन ऐसा क्या हो गया कि ओलम्पिक में उतरते ही उनकी रैंकिंग पर फिसड्डी भारी पड़ गए ? मुक्केबाज़ अमित पन्घाल से हर कोई गोल्ड की उम्मीद कर रहा था लेकिन उसे हल्के प्रतिद्वंद्वी के हाथों बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा।

तीरन्दाज़ दीपिका कुमारी का तीसरा ओलम्पिक था, ज़ाहिर है अनुभव की कोई कमी नहीं थी। ओलम्पिक से पहले उसके तीर लक्ष्य भेद रहे थे लेकिन टोक्यों में लंदन और रियो वाली कहानी लिखी गई।

निशानेबाज़ी में अपूर्वी चंदेला, मनु भाकर, सौरभ चौधरी, तेजस्वनि सावंत, यशविनी देसवाल, अभिषेक वर्मा और अन्य पर वर्ल्ड चैम्पियन की मोहर लगी थी। ज़्यादातर की रैंकिंग भी नंबर एक की थी।

उन्हें पदकों का अंबार लगाने वालों में स्थान दिया गया लेकिन एक भी निशानेबाज कसौटी पर खरा नहीं उतरा। शायद अत्यधिक आत्मविश्वास उन्हें ले डूबा। ओलम्पिक पदक विजेताओं की भाषा में पदक जीतने का दबाव उन पर पहले ही हावी हो गया था।

बेशक, नीरज चोपड़ा के स्वर्ण पदक ने लाज बचा ली लेकिन एक बार फिर साफ हो गया कि भारतीय खिलाड़ियों की विश्व रैंकिंग सिर्फ़ झूठ का पुलिंदा है। सच्चाई तो यह है कि ज़्यादातर उन आयोजनों में खिताब जीतते हैं जहाँ असली चैम्पियन भाग नहीं लेते।

बेहतर होगा खेल मंत्रालय और भारतीय खेल प्राधिकरण मिट्टी के शेरों पर देशवासियों के खून पसीने की कमाई बर्बाद करना बंद कर दें, ऐसा भारतीय खेल प्रेमियों का मानना है।

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